मैं टोपी या ईद की नहीं कश्मीर की बात कर रहा हूं...
---
मुझे यह टोपी 2012 में मेरी पोस्ट ग्रेजुएशन के सहपाठी Nasir Khan ने पहनाई थी। उसी ने अपने कैमरे से यह फोटो खींची थी और कहा था कि गौरव मियां गजब लग रहे हो...। नासिर कश्मीर के रहने वाले हैं या यूं कहें कि कश्मीरी हैं। इन दिनों दिल्ली में एक प्रतिष्ठित न्यूज चैनेल में बतौर वीडियो जर्नलिस्ट कार्यरत हैं।
आपको लग रहा होगा कि आखिर ईद के मौके पर मैं ये टोपी की फोटो डालकर कश्मीर की बात क्यों कर रहा हूं...? दरअसल पिछले दिनों से लगातार चल रहे घटनाक्रमों ने मेरे अंदर कश्मीर शब्द को लेकर ही नफरत पैदा कर दी है। हर दिन अखबार के पहले पेज पर श्रीनगर डेटलाइन से एक न एक खबर आंखों के सामने होती है। जिस तरह की घटनाओं से रूबरू कराया जा रहा है, उनके चलते ही मेरे अंदर यह नफरत घर कर रही है।
लेकिन अचानक आज ईद आई तो मुझे मेरा कश्मीरी साथी नासिर याद आ गया। नासिर उन चंद साथियों में से एक है जो मेरे बेरोजगारी के दौर में दिल्ली में मुझे नौकरी दिलाने के प्रयास में लगा था। इसके बाद मुझे उसके द्वारा खींची अपनी टोपी वाली यह फोटो भी याद आ गई।
इन सबने मुझे फिर सोचने पर विवश कर दिया। फिर सवाल उठे कि क्या हर कश्मीरी भारत और हर भारतीय से सिर्फ नफरत करता है...? क्या हर कश्मीरी भारत से अलग होने की मांग कर रहा है...? क्या हर कश्मीरी आतंकियों, घुसपैठियों का साथ देकर सैनिकों के साथ बर्बरता और भारतविरोधी गतिविधियों का हिस्सा है...? या महज 20 फीसदी आबादी अन्य 80 फीसदी आबादी के चेहरे के रूप में हमें दिखाई जा रही है।
यहां मुझे पोस्ट ग्रेजुएशन के दिनों की ही कश्मीरी साथी तबस्सुम और उसके द्वारा साझा की गई, उनके परिवार के साथ घटी अनहोनी घटना भी याद आ रही है।
उलझ सा गया हूं। जवाब नहीं मिल रहा है। हां, ये जरूर लगता है कि कश्मीर के मसले को सुलझाने के संजीदा प्रयास नहीं हो रहे हैं। सिर्फ निंदा, बयानबाजी और एक के बदले 10 सिरों तक सबकुछ सीमित होकर रह गया है। कैसे चतुराई से हम अखबारी दुनिया में पहले दो आतंकी ढेर और फिर एक जवान शहीद लिख देते हैं। ऐसा लगता है कि मौत का आंकड़ा महज फुटबॉल मैच का स्कोर हो। हमारा एक मरा है तो क्या हुआ, हमने तो उनके दो मारे हैं न...। ईश्वर न करे कि इन खबरों को लिखने, खबरों को बताने और इसके जिम्मेदार लोगों को अपने बेटों की अर्थी को कांधा देने का बोझ कभी उठाना पड़े। खुदा न करे इन्हें अपनी बेटियों और बहुओं की मांग से छुड़ाए जाते सिंदूर का साक्षी होना पड़े। यह सब फुटबॉल के स्कोर के बाद में शहीद सैनिकों के घरों में उफनाने वाला दर्द का दरिया होता है। जो बहुत कुछ हमेशा के लिए अपने साथ बहा ले जाता है।
खैर एक बात मान लीजिए कश्मीर में आज जो नफरत की फिजा बह रही है वह एक दो दिन नहीं बल्कि दशकों से बोई और सींची गई फसल है। जो पककर तैयार हो रही है। हम आप तो आम आदमी हैं, हम में से अधिकांश तो अभी कश्मीर घूमने तक नहीं गए। लेकिन जो सत्ताधीश बने बैठे हैं, उनसे क्या छिपा है। उन्हें तो पता ही होता है न कि देश के किस हिस्से में क्या चल रहा है। लेकिन मंशा ठीक हो तब न। समस्या के समाधान से ज्यादा जोर चीजों को राजनीतिक रंग देने पर दिया जा रहा है। अन्ना हजारे मिले थे, तो कह रहे थे कि सत्ता परिवर्तत तो हुआ है, लेकिन व्यवस्था परिवर्तन नहीं हुआ। सच कह रहे थे, कुछ मुद्दों को लेकर कुछ भी तो नहीं बदला है।
अंत में मैं तो बस इतना ही कहूंगा कि हमें सिक्के के दोनों पहलू देखने चाहिए। क्योंकि अधूरा सच बताकर और दिखाकर हमसे बात की सच्चाई तक पहुंचने का हक छीना जा रहा है। हमें सिर्फ एक पहलू देखने के लिए बाध्य किया जा रहा है। यही नहीं हमें असल मुद्दों से भटकाने के लिए देशभक्ति, हिन्दुत्व, इस्लाम का सहारा लेकर गुमराह किया जा रहा है। हमें इन सबसे बचना है। हो सके तो अखबारों, टीवी चैनलों, फेसबुक के वाहियात ग्रुप और लोगों से दूरी बना लें। क्योंकि आज इन माध्यमों में नफरत से बुझे शब्दों की संख्या अमन और मोहब्बत के शब्दों से कहीं ज्यादा हो गई है। हमें इनसे दूरी रखते हुए अपने अंदर घटनाओं को अपने चश्मे से देखने की क्षमता पैदा करनी होगी।
यहां दुष्यंत कुमार साहब का शेर याद आ रहा है...
रहनुमाओं की अदाओं पे फिदा है दुनिया,
इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारों...।
---
सभी को चांद की दीद और मीठी ईद मुबारक।
---
मुझे यह टोपी 2012 में मेरी पोस्ट ग्रेजुएशन के सहपाठी Nasir Khan ने पहनाई थी। उसी ने अपने कैमरे से यह फोटो खींची थी और कहा था कि गौरव मियां गजब लग रहे हो...। नासिर कश्मीर के रहने वाले हैं या यूं कहें कि कश्मीरी हैं। इन दिनों दिल्ली में एक प्रतिष्ठित न्यूज चैनेल में बतौर वीडियो जर्नलिस्ट कार्यरत हैं।
आपको लग रहा होगा कि आखिर ईद के मौके पर मैं ये टोपी की फोटो डालकर कश्मीर की बात क्यों कर रहा हूं...? दरअसल पिछले दिनों से लगातार चल रहे घटनाक्रमों ने मेरे अंदर कश्मीर शब्द को लेकर ही नफरत पैदा कर दी है। हर दिन अखबार के पहले पेज पर श्रीनगर डेटलाइन से एक न एक खबर आंखों के सामने होती है। जिस तरह की घटनाओं से रूबरू कराया जा रहा है, उनके चलते ही मेरे अंदर यह नफरत घर कर रही है।
लेकिन अचानक आज ईद आई तो मुझे मेरा कश्मीरी साथी नासिर याद आ गया। नासिर उन चंद साथियों में से एक है जो मेरे बेरोजगारी के दौर में दिल्ली में मुझे नौकरी दिलाने के प्रयास में लगा था। इसके बाद मुझे उसके द्वारा खींची अपनी टोपी वाली यह फोटो भी याद आ गई।
इन सबने मुझे फिर सोचने पर विवश कर दिया। फिर सवाल उठे कि क्या हर कश्मीरी भारत और हर भारतीय से सिर्फ नफरत करता है...? क्या हर कश्मीरी भारत से अलग होने की मांग कर रहा है...? क्या हर कश्मीरी आतंकियों, घुसपैठियों का साथ देकर सैनिकों के साथ बर्बरता और भारतविरोधी गतिविधियों का हिस्सा है...? या महज 20 फीसदी आबादी अन्य 80 फीसदी आबादी के चेहरे के रूप में हमें दिखाई जा रही है।
यहां मुझे पोस्ट ग्रेजुएशन के दिनों की ही कश्मीरी साथी तबस्सुम और उसके द्वारा साझा की गई, उनके परिवार के साथ घटी अनहोनी घटना भी याद आ रही है।
उलझ सा गया हूं। जवाब नहीं मिल रहा है। हां, ये जरूर लगता है कि कश्मीर के मसले को सुलझाने के संजीदा प्रयास नहीं हो रहे हैं। सिर्फ निंदा, बयानबाजी और एक के बदले 10 सिरों तक सबकुछ सीमित होकर रह गया है। कैसे चतुराई से हम अखबारी दुनिया में पहले दो आतंकी ढेर और फिर एक जवान शहीद लिख देते हैं। ऐसा लगता है कि मौत का आंकड़ा महज फुटबॉल मैच का स्कोर हो। हमारा एक मरा है तो क्या हुआ, हमने तो उनके दो मारे हैं न...। ईश्वर न करे कि इन खबरों को लिखने, खबरों को बताने और इसके जिम्मेदार लोगों को अपने बेटों की अर्थी को कांधा देने का बोझ कभी उठाना पड़े। खुदा न करे इन्हें अपनी बेटियों और बहुओं की मांग से छुड़ाए जाते सिंदूर का साक्षी होना पड़े। यह सब फुटबॉल के स्कोर के बाद में शहीद सैनिकों के घरों में उफनाने वाला दर्द का दरिया होता है। जो बहुत कुछ हमेशा के लिए अपने साथ बहा ले जाता है।
खैर एक बात मान लीजिए कश्मीर में आज जो नफरत की फिजा बह रही है वह एक दो दिन नहीं बल्कि दशकों से बोई और सींची गई फसल है। जो पककर तैयार हो रही है। हम आप तो आम आदमी हैं, हम में से अधिकांश तो अभी कश्मीर घूमने तक नहीं गए। लेकिन जो सत्ताधीश बने बैठे हैं, उनसे क्या छिपा है। उन्हें तो पता ही होता है न कि देश के किस हिस्से में क्या चल रहा है। लेकिन मंशा ठीक हो तब न। समस्या के समाधान से ज्यादा जोर चीजों को राजनीतिक रंग देने पर दिया जा रहा है। अन्ना हजारे मिले थे, तो कह रहे थे कि सत्ता परिवर्तत तो हुआ है, लेकिन व्यवस्था परिवर्तन नहीं हुआ। सच कह रहे थे, कुछ मुद्दों को लेकर कुछ भी तो नहीं बदला है।
अंत में मैं तो बस इतना ही कहूंगा कि हमें सिक्के के दोनों पहलू देखने चाहिए। क्योंकि अधूरा सच बताकर और दिखाकर हमसे बात की सच्चाई तक पहुंचने का हक छीना जा रहा है। हमें सिर्फ एक पहलू देखने के लिए बाध्य किया जा रहा है। यही नहीं हमें असल मुद्दों से भटकाने के लिए देशभक्ति, हिन्दुत्व, इस्लाम का सहारा लेकर गुमराह किया जा रहा है। हमें इन सबसे बचना है। हो सके तो अखबारों, टीवी चैनलों, फेसबुक के वाहियात ग्रुप और लोगों से दूरी बना लें। क्योंकि आज इन माध्यमों में नफरत से बुझे शब्दों की संख्या अमन और मोहब्बत के शब्दों से कहीं ज्यादा हो गई है। हमें इनसे दूरी रखते हुए अपने अंदर घटनाओं को अपने चश्मे से देखने की क्षमता पैदा करनी होगी।
यहां दुष्यंत कुमार साहब का शेर याद आ रहा है...
रहनुमाओं की अदाओं पे फिदा है दुनिया,
इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारों...।
---
सभी को चांद की दीद और मीठी ईद मुबारक।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें