gauravkigaatha
बुधवार, 9 जनवरी 2019
सोमवार, 9 जुलाई 2018
Kashmir: Pain, Gain, Drain; But no body cares
मैं टोपी या ईद की नहीं कश्मीर की बात कर रहा हूं...
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मुझे यह टोपी 2012 में मेरी पोस्ट ग्रेजुएशन के सहपाठी Nasir Khan ने पहनाई थी। उसी ने अपने कैमरे से यह फोटो खींची थी और कहा था कि गौरव मियां गजब लग रहे हो...। नासिर कश्मीर के रहने वाले हैं या यूं कहें कि कश्मीरी हैं। इन दिनों दिल्ली में एक प्रतिष्ठित न्यूज चैनेल में बतौर वीडियो जर्नलिस्ट कार्यरत हैं।
आपको लग रहा होगा कि आखिर ईद के मौके पर मैं ये टोपी की फोटो डालकर कश्मीर की बात क्यों कर रहा हूं...? दरअसल पिछले दिनों से लगातार चल रहे घटनाक्रमों ने मेरे अंदर कश्मीर शब्द को लेकर ही नफरत पैदा कर दी है। हर दिन अखबार के पहले पेज पर श्रीनगर डेटलाइन से एक न एक खबर आंखों के सामने होती है। जिस तरह की घटनाओं से रूबरू कराया जा रहा है, उनके चलते ही मेरे अंदर यह नफरत घर कर रही है।
लेकिन अचानक आज ईद आई तो मुझे मेरा कश्मीरी साथी नासिर याद आ गया। नासिर उन चंद साथियों में से एक है जो मेरे बेरोजगारी के दौर में दिल्ली में मुझे नौकरी दिलाने के प्रयास में लगा था। इसके बाद मुझे उसके द्वारा खींची अपनी टोपी वाली यह फोटो भी याद आ गई।
इन सबने मुझे फिर सोचने पर विवश कर दिया। फिर सवाल उठे कि क्या हर कश्मीरी भारत और हर भारतीय से सिर्फ नफरत करता है...? क्या हर कश्मीरी भारत से अलग होने की मांग कर रहा है...? क्या हर कश्मीरी आतंकियों, घुसपैठियों का साथ देकर सैनिकों के साथ बर्बरता और भारतविरोधी गतिविधियों का हिस्सा है...? या महज 20 फीसदी आबादी अन्य 80 फीसदी आबादी के चेहरे के रूप में हमें दिखाई जा रही है।
यहां मुझे पोस्ट ग्रेजुएशन के दिनों की ही कश्मीरी साथी तबस्सुम और उसके द्वारा साझा की गई, उनके परिवार के साथ घटी अनहोनी घटना भी याद आ रही है।
उलझ सा गया हूं। जवाब नहीं मिल रहा है। हां, ये जरूर लगता है कि कश्मीर के मसले को सुलझाने के संजीदा प्रयास नहीं हो रहे हैं। सिर्फ निंदा, बयानबाजी और एक के बदले 10 सिरों तक सबकुछ सीमित होकर रह गया है। कैसे चतुराई से हम अखबारी दुनिया में पहले दो आतंकी ढेर और फिर एक जवान शहीद लिख देते हैं। ऐसा लगता है कि मौत का आंकड़ा महज फुटबॉल मैच का स्कोर हो। हमारा एक मरा है तो क्या हुआ, हमने तो उनके दो मारे हैं न...। ईश्वर न करे कि इन खबरों को लिखने, खबरों को बताने और इसके जिम्मेदार लोगों को अपने बेटों की अर्थी को कांधा देने का बोझ कभी उठाना पड़े। खुदा न करे इन्हें अपनी बेटियों और बहुओं की मांग से छुड़ाए जाते सिंदूर का साक्षी होना पड़े। यह सब फुटबॉल के स्कोर के बाद में शहीद सैनिकों के घरों में उफनाने वाला दर्द का दरिया होता है। जो बहुत कुछ हमेशा के लिए अपने साथ बहा ले जाता है।
खैर एक बात मान लीजिए कश्मीर में आज जो नफरत की फिजा बह रही है वह एक दो दिन नहीं बल्कि दशकों से बोई और सींची गई फसल है। जो पककर तैयार हो रही है। हम आप तो आम आदमी हैं, हम में से अधिकांश तो अभी कश्मीर घूमने तक नहीं गए। लेकिन जो सत्ताधीश बने बैठे हैं, उनसे क्या छिपा है। उन्हें तो पता ही होता है न कि देश के किस हिस्से में क्या चल रहा है। लेकिन मंशा ठीक हो तब न। समस्या के समाधान से ज्यादा जोर चीजों को राजनीतिक रंग देने पर दिया जा रहा है। अन्ना हजारे मिले थे, तो कह रहे थे कि सत्ता परिवर्तत तो हुआ है, लेकिन व्यवस्था परिवर्तन नहीं हुआ। सच कह रहे थे, कुछ मुद्दों को लेकर कुछ भी तो नहीं बदला है।
अंत में मैं तो बस इतना ही कहूंगा कि हमें सिक्के के दोनों पहलू देखने चाहिए। क्योंकि अधूरा सच बताकर और दिखाकर हमसे बात की सच्चाई तक पहुंचने का हक छीना जा रहा है। हमें सिर्फ एक पहलू देखने के लिए बाध्य किया जा रहा है। यही नहीं हमें असल मुद्दों से भटकाने के लिए देशभक्ति, हिन्दुत्व, इस्लाम का सहारा लेकर गुमराह किया जा रहा है। हमें इन सबसे बचना है। हो सके तो अखबारों, टीवी चैनलों, फेसबुक के वाहियात ग्रुप और लोगों से दूरी बना लें। क्योंकि आज इन माध्यमों में नफरत से बुझे शब्दों की संख्या अमन और मोहब्बत के शब्दों से कहीं ज्यादा हो गई है। हमें इनसे दूरी रखते हुए अपने अंदर घटनाओं को अपने चश्मे से देखने की क्षमता पैदा करनी होगी।
यहां दुष्यंत कुमार साहब का शेर याद आ रहा है...
रहनुमाओं की अदाओं पे फिदा है दुनिया,
इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारों...।
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सभी को चांद की दीद और मीठी ईद मुबारक।
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मुझे यह टोपी 2012 में मेरी पोस्ट ग्रेजुएशन के सहपाठी Nasir Khan ने पहनाई थी। उसी ने अपने कैमरे से यह फोटो खींची थी और कहा था कि गौरव मियां गजब लग रहे हो...। नासिर कश्मीर के रहने वाले हैं या यूं कहें कि कश्मीरी हैं। इन दिनों दिल्ली में एक प्रतिष्ठित न्यूज चैनेल में बतौर वीडियो जर्नलिस्ट कार्यरत हैं।
आपको लग रहा होगा कि आखिर ईद के मौके पर मैं ये टोपी की फोटो डालकर कश्मीर की बात क्यों कर रहा हूं...? दरअसल पिछले दिनों से लगातार चल रहे घटनाक्रमों ने मेरे अंदर कश्मीर शब्द को लेकर ही नफरत पैदा कर दी है। हर दिन अखबार के पहले पेज पर श्रीनगर डेटलाइन से एक न एक खबर आंखों के सामने होती है। जिस तरह की घटनाओं से रूबरू कराया जा रहा है, उनके चलते ही मेरे अंदर यह नफरत घर कर रही है।
लेकिन अचानक आज ईद आई तो मुझे मेरा कश्मीरी साथी नासिर याद आ गया। नासिर उन चंद साथियों में से एक है जो मेरे बेरोजगारी के दौर में दिल्ली में मुझे नौकरी दिलाने के प्रयास में लगा था। इसके बाद मुझे उसके द्वारा खींची अपनी टोपी वाली यह फोटो भी याद आ गई।
इन सबने मुझे फिर सोचने पर विवश कर दिया। फिर सवाल उठे कि क्या हर कश्मीरी भारत और हर भारतीय से सिर्फ नफरत करता है...? क्या हर कश्मीरी भारत से अलग होने की मांग कर रहा है...? क्या हर कश्मीरी आतंकियों, घुसपैठियों का साथ देकर सैनिकों के साथ बर्बरता और भारतविरोधी गतिविधियों का हिस्सा है...? या महज 20 फीसदी आबादी अन्य 80 फीसदी आबादी के चेहरे के रूप में हमें दिखाई जा रही है।
यहां मुझे पोस्ट ग्रेजुएशन के दिनों की ही कश्मीरी साथी तबस्सुम और उसके द्वारा साझा की गई, उनके परिवार के साथ घटी अनहोनी घटना भी याद आ रही है।
उलझ सा गया हूं। जवाब नहीं मिल रहा है। हां, ये जरूर लगता है कि कश्मीर के मसले को सुलझाने के संजीदा प्रयास नहीं हो रहे हैं। सिर्फ निंदा, बयानबाजी और एक के बदले 10 सिरों तक सबकुछ सीमित होकर रह गया है। कैसे चतुराई से हम अखबारी दुनिया में पहले दो आतंकी ढेर और फिर एक जवान शहीद लिख देते हैं। ऐसा लगता है कि मौत का आंकड़ा महज फुटबॉल मैच का स्कोर हो। हमारा एक मरा है तो क्या हुआ, हमने तो उनके दो मारे हैं न...। ईश्वर न करे कि इन खबरों को लिखने, खबरों को बताने और इसके जिम्मेदार लोगों को अपने बेटों की अर्थी को कांधा देने का बोझ कभी उठाना पड़े। खुदा न करे इन्हें अपनी बेटियों और बहुओं की मांग से छुड़ाए जाते सिंदूर का साक्षी होना पड़े। यह सब फुटबॉल के स्कोर के बाद में शहीद सैनिकों के घरों में उफनाने वाला दर्द का दरिया होता है। जो बहुत कुछ हमेशा के लिए अपने साथ बहा ले जाता है।
खैर एक बात मान लीजिए कश्मीर में आज जो नफरत की फिजा बह रही है वह एक दो दिन नहीं बल्कि दशकों से बोई और सींची गई फसल है। जो पककर तैयार हो रही है। हम आप तो आम आदमी हैं, हम में से अधिकांश तो अभी कश्मीर घूमने तक नहीं गए। लेकिन जो सत्ताधीश बने बैठे हैं, उनसे क्या छिपा है। उन्हें तो पता ही होता है न कि देश के किस हिस्से में क्या चल रहा है। लेकिन मंशा ठीक हो तब न। समस्या के समाधान से ज्यादा जोर चीजों को राजनीतिक रंग देने पर दिया जा रहा है। अन्ना हजारे मिले थे, तो कह रहे थे कि सत्ता परिवर्तत तो हुआ है, लेकिन व्यवस्था परिवर्तन नहीं हुआ। सच कह रहे थे, कुछ मुद्दों को लेकर कुछ भी तो नहीं बदला है।
अंत में मैं तो बस इतना ही कहूंगा कि हमें सिक्के के दोनों पहलू देखने चाहिए। क्योंकि अधूरा सच बताकर और दिखाकर हमसे बात की सच्चाई तक पहुंचने का हक छीना जा रहा है। हमें सिर्फ एक पहलू देखने के लिए बाध्य किया जा रहा है। यही नहीं हमें असल मुद्दों से भटकाने के लिए देशभक्ति, हिन्दुत्व, इस्लाम का सहारा लेकर गुमराह किया जा रहा है। हमें इन सबसे बचना है। हो सके तो अखबारों, टीवी चैनलों, फेसबुक के वाहियात ग्रुप और लोगों से दूरी बना लें। क्योंकि आज इन माध्यमों में नफरत से बुझे शब्दों की संख्या अमन और मोहब्बत के शब्दों से कहीं ज्यादा हो गई है। हमें इनसे दूरी रखते हुए अपने अंदर घटनाओं को अपने चश्मे से देखने की क्षमता पैदा करनी होगी।
यहां दुष्यंत कुमार साहब का शेर याद आ रहा है...
रहनुमाओं की अदाओं पे फिदा है दुनिया,
इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारों...।
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सभी को चांद की दीद और मीठी ईद मुबारक।
वो मिट्टी में सने हैं तो आपके लिए
वृक्ष की जड़ जिंदगी भर मिट्टी से सनी और उसमें दबी रहती है। तब जाकर कहीं वह साखों के लिए पानी और पोषक तत्व जुटाती रहती है। इन्हीं साखों पर जब फूल और फल आते हैं तो साखों और तने संग जड़ भी अह्लादित हो स्थिर रहकर भी झूम उठती है। पुष्प व फल की खूबसूरती, सुगंध व स्वाद देख वह अपने बलिदान को सार्थक मानती है और उसे निरंतर जारी रखती है। लेकिन अक्सर फल और फूल इस बलिदान को भूल जाते हैं।
मुनव्वर राना कहते हैं न कि पत्ते देहाती रहते हैं और फल शहरी हो जाते हैं। ये खुद को शहरी समझने वाले कुछ फल पत्तों और जड़ों को निम्न समझने लगते हैं। लेकिन वो नहीं समझ पाते कि जब जड़ को उपेक्षा की दीमक लगती है तो पत्ते और फल सब सूखकर झड़ ही जाते हैं।
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आप समझ रहे होंगे कि क्या कहने की कोशिश है। जिन देहाती जड़ों को चूंसकर आप शहरी इंजीनियर, डॉक्टर, पायलट से लेकर एस्ट्रोनॉट तक बने और मुंबई, दिल्ली से लेकर न्यूयॉर्क तक में जाकर बस गए हो, उन्हें भूलो नहीं। आप भले चटख चमकीले रंग के हैं और वो मिट्टी से सने धूल धूसरित हैं, लेकिन उनके बारे में किसी को बताने में शर्म न करो। वक्त-वक्त पर आकर उन्हें स्नेह की खाद और विश्वास का पानी देते रहो। अगर आपकी उपेक्षा की दीमक उन्हें लगी तो आज आप भले शिखर की ओर हों लेकिन आपका पतन तय है। भले देर से हो, मगर होगा जरूर। क्योंकि, यही प्रकृति का नियम है।
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आप समझ रहे होंगे कि क्या कहने की कोशिश है। जिन देहाती जड़ों को चूंसकर आप शहरी इंजीनियर, डॉक्टर, पायलट से लेकर एस्ट्रोनॉट तक बने और मुंबई, दिल्ली से लेकर न्यूयॉर्क तक में जाकर बस गए हो, उन्हें भूलो नहीं। आप भले चटख चमकीले रंग के हैं और वो मिट्टी से सने धूल धूसरित हैं, लेकिन उनके बारे में किसी को बताने में शर्म न करो। वक्त-वक्त पर आकर उन्हें स्नेह की खाद और विश्वास का पानी देते रहो। अगर आपकी उपेक्षा की दीमक उन्हें लगी तो आज आप भले शिखर की ओर हों लेकिन आपका पतन तय है। भले देर से हो, मगर होगा जरूर। क्योंकि, यही प्रकृति का नियम है।
(2015 की एक यात्रा- अंतिम कड़ी)
जिंदगी में हर घटना के पीछे कोई न कोई कारण होता है... इस घटना के पीछे का कारण जब जाना तो आंखों से आंसू बहने लगे
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कुछ ही देर बाद रिक्शा वाले ने तीन चार अस्पतालों वाले इलाके में पहुंचा दिया। मैं हैरान परेशान पहले एक अस्पताल में घुसा। डॉक्टर का पता किया तो उपलब्ध नहीं थे। तीनों अस्पतालों की यही स्थिति थी। सभी अस्पतलों में ओपीडी शुरू होने वाली थीं। मरीजों की लंबी कतार थीं। अंत में एक अस्पताल में गया तो डॉक्टर के रूम के बाहर ही उसका असिस्टेंट बीपी नापने वाली मशीन लिए बैठे दिखा। उससे बीपी नापने का अग्रह किया तो उसने साफ मना कर दिया। बोला कि पहले फीस भरकर पर्चा बनावकर आओ। मैंने पूछा कि डॉक्टर कितनी देर में बैंठेंगे तो उसने बताया कि एक घंटे बाद। भीड़ की तरफ देखा तो हिम्मत जवाब दे गई। मैंने उससे फिर आग्रह किया कि भाई मैं डॉक्टर को नहीं दिखाना चाहता, मुझे तो बस बीपी चेक कराना है। उसने फिर मना कर दिया। मैंने भोली और उदास सी सूरत लिए फिर अनुरोध किया तो वो मान गया। बीपी चेक किया, नॉर्मल निकला। मैं फिर हैरान था। अब तो बीपी भी नॉर्मल है तो फिर चक्कर क्यों आए। अस्पतालों के चक्कर लगाने के दौरान ये भी ध्यान में नहीं आया कि वहां कि इमरजेंसी सेवा लेकर ही बीपी चेक करवा लूं।
खैर, डॉक्टर दोस्त को बीपी के बारे में बताया और उसके द्वारा बताई गईं दवाएं ले लीं। अब यहां से चलने की बारी थी। रास्ता पता किया और पैदल ही चल दिया। कुछ ही देर में उस मुख्य सड़क पर आ गया, जहां से अस्पताल ले जाने में रिक्शे वाले ने न जाने कितना घुमाया था। मतलब जेब पर डाका डालने के लिए रिक्शे वाले भाई ने यूंही न जाने गोरखपुर की कौन-कौन सी कुंज गलियों का भ्रमण करा दिया था।
अब इरादा साफ हो चुका था कि रास्ता काठमांडु का नहीं, हरदोई का पकड़ना था। लौटने का रिजर्वेशन काम नहीं आना था, क्योंकि वह दो दिन बाद का था। तो अब बारी धक्का खाते हुए घर लौटने की थी। इन धक्कों की कोई चिंता नहीं थी, मन व्यथित था तो पहली बार अकेले निकलने वाली यात्रा के असफल होने से। डूबे मन और डबडबाई आंखों से रेलवे स्टेशन पहुंचा। ट्रेन का पता किया तो जानकारी मिली कि आज गोरखपुर से मुंबई के लिए नई ट्रेन शुरू हो रही है। गया तो प्लेटफॉर्म पर सजी-धजी ट्रेन खड़ी मिली। आसानी से सीट मिल गई। करीब एक घंटे बाद ट्रेन चल दी। दवा का असर हुआ और गहरी नींद आ गई। सफर का पता ही नहीं चला। लखनऊ पहुंचने से पहले ही घर फोन करके मां से कह दिया कि मेरे लिए भी खाना बना लेना। उन्होंने जल्दी लौटने का कारण पूछा तो मैंने कह दिया कि लौट कर बताऊंगा। मुझे डर था कि अगर उन्हें तबीयत खराब की बात बताई तो वे घबरा जाएंगी। रात तक घर पहुंच भी गया। तमाम नशीहतें मिलीं। हालांकि, मैं हमेशा की तरह जीवन की इस घटना के कारणों को जानने की कोशिश कर रहा था। मैं जानना चाहता कि इस घटना के जरिये आखिर ईश्वर क्या कहने की कोशिश कर रहा है। उस दिन इसका कोई जवाब नहीं मिला।
मेरे लौटने केे दो दिन बाद यानी 25 अप्रैल 2015 को नेपाल में 7.9 की तीव्रता वाला भयानक भूकंप आया। इसमें 8000 से अधिक लोग मारे गए। दूरसंचार समेत सभी सेवाएं लगभग ठप हो गईं। इस समाचार को देखते हुए मैं पहले स्तब्ध हुआ और फिर मेरी आंखों से आंसू बहने लगे। मुझे मेरी असफल यात्रा के पीछे का जवाब मिल गया था। मुझे रास्ते में ही रोके जाने का जवाब मिल गया था। मैं आंखें बंद कर काफी देर तक लेटा रहा। गालों पर बहकर आए आसुंओं के सूखने के संग मैं अपने सिर पर उसके हाथ के स्पर्श को महसूस कर रहा था।
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आज यह लिखते हुए उस दिन के बारे में सोचकर रोंगटे खड़े हो रहे हैं। उठाने वाले ईश्वर के अस्तित्व पर तक सवाल उठा रहे हैं, उन्हें उठाना भी चाहिए। मैं कैसे उठाऊं मैंने तो उसकी गंध को, उसके स्पर्श को कई दफा महसूस किया है।
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कुछ ही देर बाद रिक्शा वाले ने तीन चार अस्पतालों वाले इलाके में पहुंचा दिया। मैं हैरान परेशान पहले एक अस्पताल में घुसा। डॉक्टर का पता किया तो उपलब्ध नहीं थे। तीनों अस्पतालों की यही स्थिति थी। सभी अस्पतलों में ओपीडी शुरू होने वाली थीं। मरीजों की लंबी कतार थीं। अंत में एक अस्पताल में गया तो डॉक्टर के रूम के बाहर ही उसका असिस्टेंट बीपी नापने वाली मशीन लिए बैठे दिखा। उससे बीपी नापने का अग्रह किया तो उसने साफ मना कर दिया। बोला कि पहले फीस भरकर पर्चा बनावकर आओ। मैंने पूछा कि डॉक्टर कितनी देर में बैंठेंगे तो उसने बताया कि एक घंटे बाद। भीड़ की तरफ देखा तो हिम्मत जवाब दे गई। मैंने उससे फिर आग्रह किया कि भाई मैं डॉक्टर को नहीं दिखाना चाहता, मुझे तो बस बीपी चेक कराना है। उसने फिर मना कर दिया। मैंने भोली और उदास सी सूरत लिए फिर अनुरोध किया तो वो मान गया। बीपी चेक किया, नॉर्मल निकला। मैं फिर हैरान था। अब तो बीपी भी नॉर्मल है तो फिर चक्कर क्यों आए। अस्पतालों के चक्कर लगाने के दौरान ये भी ध्यान में नहीं आया कि वहां कि इमरजेंसी सेवा लेकर ही बीपी चेक करवा लूं।
खैर, डॉक्टर दोस्त को बीपी के बारे में बताया और उसके द्वारा बताई गईं दवाएं ले लीं। अब यहां से चलने की बारी थी। रास्ता पता किया और पैदल ही चल दिया। कुछ ही देर में उस मुख्य सड़क पर आ गया, जहां से अस्पताल ले जाने में रिक्शे वाले ने न जाने कितना घुमाया था। मतलब जेब पर डाका डालने के लिए रिक्शे वाले भाई ने यूंही न जाने गोरखपुर की कौन-कौन सी कुंज गलियों का भ्रमण करा दिया था।
अब इरादा साफ हो चुका था कि रास्ता काठमांडु का नहीं, हरदोई का पकड़ना था। लौटने का रिजर्वेशन काम नहीं आना था, क्योंकि वह दो दिन बाद का था। तो अब बारी धक्का खाते हुए घर लौटने की थी। इन धक्कों की कोई चिंता नहीं थी, मन व्यथित था तो पहली बार अकेले निकलने वाली यात्रा के असफल होने से। डूबे मन और डबडबाई आंखों से रेलवे स्टेशन पहुंचा। ट्रेन का पता किया तो जानकारी मिली कि आज गोरखपुर से मुंबई के लिए नई ट्रेन शुरू हो रही है। गया तो प्लेटफॉर्म पर सजी-धजी ट्रेन खड़ी मिली। आसानी से सीट मिल गई। करीब एक घंटे बाद ट्रेन चल दी। दवा का असर हुआ और गहरी नींद आ गई। सफर का पता ही नहीं चला। लखनऊ पहुंचने से पहले ही घर फोन करके मां से कह दिया कि मेरे लिए भी खाना बना लेना। उन्होंने जल्दी लौटने का कारण पूछा तो मैंने कह दिया कि लौट कर बताऊंगा। मुझे डर था कि अगर उन्हें तबीयत खराब की बात बताई तो वे घबरा जाएंगी। रात तक घर पहुंच भी गया। तमाम नशीहतें मिलीं। हालांकि, मैं हमेशा की तरह जीवन की इस घटना के कारणों को जानने की कोशिश कर रहा था। मैं जानना चाहता कि इस घटना के जरिये आखिर ईश्वर क्या कहने की कोशिश कर रहा है। उस दिन इसका कोई जवाब नहीं मिला।
मेरे लौटने केे दो दिन बाद यानी 25 अप्रैल 2015 को नेपाल में 7.9 की तीव्रता वाला भयानक भूकंप आया। इसमें 8000 से अधिक लोग मारे गए। दूरसंचार समेत सभी सेवाएं लगभग ठप हो गईं। इस समाचार को देखते हुए मैं पहले स्तब्ध हुआ और फिर मेरी आंखों से आंसू बहने लगे। मुझे मेरी असफल यात्रा के पीछे का जवाब मिल गया था। मुझे रास्ते में ही रोके जाने का जवाब मिल गया था। मैं आंखें बंद कर काफी देर तक लेटा रहा। गालों पर बहकर आए आसुंओं के सूखने के संग मैं अपने सिर पर उसके हाथ के स्पर्श को महसूस कर रहा था।
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आज यह लिखते हुए उस दिन के बारे में सोचकर रोंगटे खड़े हो रहे हैं। उठाने वाले ईश्वर के अस्तित्व पर तक सवाल उठा रहे हैं, उन्हें उठाना भी चाहिए। मैं कैसे उठाऊं मैंने तो उसकी गंध को, उसके स्पर्श को कई दफा महसूस किया है।
(*Parts of artwork have been borrowed from the internet, with due thanks to the owner of the photograph/art)
2015 की एक यात्रा: पार्ट-2
(अब मैं मानो मझधार में फंस चुका था...)
ट्रेन में मुझे दूसरी बार चक्कर आ चुका था। परेशान से ज्यादा मैं हैरान था। लोगों ने फिर से मुझे उठाकर पास की सीट पर बैठा दिया था। ऐसा भी नहीं था कि मुझे किसी प्रकार की कमजोरी महसूस हो रही हो। मैं साधारण तरीके से चल और उठ-बैठ रहा था। दिमाग सेंटर में आने के बाद मैं वापस अपनी सीट पर लौट गया। आगे की यात्रा करने की हिम्मत कुछ कमजोर पड़ रही थी, लेकिन मैं मन को समझा रहा था कि नहीं मैं तो जाऊंगा ही।
मुझे थोड़ा उदास देखकर पास में बैठे सज्जन ने पूछ लिया कि क्या हो गया परेशान दिख रहे हो। इससे पहले हुई वार्तालाप में मैंने उनसे यह साझा नहीं किया था कि मैं काठमांडु जा रहा हूं। लेकिन मैंने उन्हें दोबारा चक्कर आने की बात साझा करने के यह भी बता दिया कि मैं काठमांडु के लिए निकला हूं। इस पर उन्होंने मुझे काठमांडु का सफर न करने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि सोनौली बॉर्डर पार करने के बाद काठमांडु पहुंचने के लिए कई घंटे का पर्वतीय सफर तय करना होगा। मुझे पहले से चक्कर आ रहे हैं और मैं अकेला भी हूं, ऐसे में परेशानी बढ़ सकती है। और फिर मैं दूसरे देश में भी जा रहा हूं, इसलिए मुझे यह जोखिम नहीं लेना चाहिए।
मैं सोच में पड़ गया कि अब आखिर मैं क्या करूं। लगभग आधा सफर मैं तय कर चुका था। यहां से वापस भी कैसे लौटूं। इसके बाद मन में अजीब-अजीब खयाल घर करने लगे।
ट्रेन का टिकट मैंने घर यानी कि हरदोई से ही कराया था। मुझे 150 से ज्यादा की वेटिंग मिली थी। इसके बावजूद मेरी टिकट कन्फर्म हो गई थी। इसे भी मैं पशुपतिनाथ बाबा की कृपा ही मान रहा था। अकेले इनते लंबे सफर पर निकलने का यह मेरा पहला अनुभव था और मैं अब मानो मझधार में फंस चुका था। अंत में मैंने फैसला किया कि गोरखपुर में उतरने के बाद आगे के बारे में सोचूंगा। वहीं, साथ में बैठे सज्जन मुझे सलाह दे रहे थे कि मैं अगली ट्रेन से वापस लौट जाऊं या डॉक्टर से परामर्श लेकर दवा लूं और गोरखपुर में ही होटल लेकर आराम करूं व अगले दिन ट्रेन से घर चला जाऊं।
इन सब उधेड़-बुनों के बीच ट्रेन गोरखपुर पहुंच गई। रेलवे स्टेशन से बाहर आते ही मैंने अपने एक डॉक्टर दोस्त को कॉल किया। उसे पूरी समस्या से अवगत कराया। उसने कमजोरी की वजह से ऐसा होने की आशंका व्यक्त की और ज्यूस पीने व कुछ हलका खा लेने की सलाह दी। मैंने स्टेशन परिसर से बाहर आकर एक बड़ा गिलास अनार का ज्यूस निकलवाया और पी गया। जैसे ही ज्यूस वाले को पैसे दिए, मुझे जोस से उल्टी आई। मैं वहीं बैठ गया। लगभग सारा ज्यूस बाहर आ चुका था। सिर सुन हो गया और मैं थोड़ा घबरा गया। एक उलटी से ही हालत ऐसी हो गई कि उठने की हिम्मत नहीं हो रही थी। आसपास से लोग गुजर रहे थे, लेकिन कोई पानी देने वाला तक नहीं था।
जैसे-तैसे उठा और फिर से अपने डॉक्टर दोस्त को फोन लगाया। उसने कहा कि बीपी का मामला लग रहा है। किसी डॉक्टर को दिखा लो या कहीं से बीपी चेक करवा लो। मैंने डॉक्टर की खोज शुरू की। कुछ समझ नहीं आया तो सीधे एक रिक्शा पकड़ा। रिक्श्ोवाले से कहा कि भाई किसी भी डॉक्टर के पास लेचलो। इसके बाद रिक्शा पहले सड़क और फिर गलियों में चल रहा था। गलियां ऐसी सुनसान थीं कि डर लगने लगा था कि यहां कहीं मेरा सामान ही न छिन जाए।
मुझे थोड़ा उदास देखकर पास में बैठे सज्जन ने पूछ लिया कि क्या हो गया परेशान दिख रहे हो। इससे पहले हुई वार्तालाप में मैंने उनसे यह साझा नहीं किया था कि मैं काठमांडु जा रहा हूं। लेकिन मैंने उन्हें दोबारा चक्कर आने की बात साझा करने के यह भी बता दिया कि मैं काठमांडु के लिए निकला हूं। इस पर उन्होंने मुझे काठमांडु का सफर न करने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि सोनौली बॉर्डर पार करने के बाद काठमांडु पहुंचने के लिए कई घंटे का पर्वतीय सफर तय करना होगा। मुझे पहले से चक्कर आ रहे हैं और मैं अकेला भी हूं, ऐसे में परेशानी बढ़ सकती है। और फिर मैं दूसरे देश में भी जा रहा हूं, इसलिए मुझे यह जोखिम नहीं लेना चाहिए।
मैं सोच में पड़ गया कि अब आखिर मैं क्या करूं। लगभग आधा सफर मैं तय कर चुका था। यहां से वापस भी कैसे लौटूं। इसके बाद मन में अजीब-अजीब खयाल घर करने लगे।
ट्रेन का टिकट मैंने घर यानी कि हरदोई से ही कराया था। मुझे 150 से ज्यादा की वेटिंग मिली थी। इसके बावजूद मेरी टिकट कन्फर्म हो गई थी। इसे भी मैं पशुपतिनाथ बाबा की कृपा ही मान रहा था। अकेले इनते लंबे सफर पर निकलने का यह मेरा पहला अनुभव था और मैं अब मानो मझधार में फंस चुका था। अंत में मैंने फैसला किया कि गोरखपुर में उतरने के बाद आगे के बारे में सोचूंगा। वहीं, साथ में बैठे सज्जन मुझे सलाह दे रहे थे कि मैं अगली ट्रेन से वापस लौट जाऊं या डॉक्टर से परामर्श लेकर दवा लूं और गोरखपुर में ही होटल लेकर आराम करूं व अगले दिन ट्रेन से घर चला जाऊं।
इन सब उधेड़-बुनों के बीच ट्रेन गोरखपुर पहुंच गई। रेलवे स्टेशन से बाहर आते ही मैंने अपने एक डॉक्टर दोस्त को कॉल किया। उसे पूरी समस्या से अवगत कराया। उसने कमजोरी की वजह से ऐसा होने की आशंका व्यक्त की और ज्यूस पीने व कुछ हलका खा लेने की सलाह दी। मैंने स्टेशन परिसर से बाहर आकर एक बड़ा गिलास अनार का ज्यूस निकलवाया और पी गया। जैसे ही ज्यूस वाले को पैसे दिए, मुझे जोस से उल्टी आई। मैं वहीं बैठ गया। लगभग सारा ज्यूस बाहर आ चुका था। सिर सुन हो गया और मैं थोड़ा घबरा गया। एक उलटी से ही हालत ऐसी हो गई कि उठने की हिम्मत नहीं हो रही थी। आसपास से लोग गुजर रहे थे, लेकिन कोई पानी देने वाला तक नहीं था।
जैसे-तैसे उठा और फिर से अपने डॉक्टर दोस्त को फोन लगाया। उसने कहा कि बीपी का मामला लग रहा है। किसी डॉक्टर को दिखा लो या कहीं से बीपी चेक करवा लो। मैंने डॉक्टर की खोज शुरू की। कुछ समझ नहीं आया तो सीधे एक रिक्शा पकड़ा। रिक्श्ोवाले से कहा कि भाई किसी भी डॉक्टर के पास लेचलो। इसके बाद रिक्शा पहले सड़क और फिर गलियों में चल रहा था। गलियां ऐसी सुनसान थीं कि डर लगने लगा था कि यहां कहीं मेरा सामान ही न छिन जाए।
2015 की एक यात्रा- पार्ट 1
(आंख खुली तो मैंने खुद को कोच की फर्श पर पड़ा पाया)
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सुबह के 9 बज रहे थे। मैं ट्रेन के स्लीपर कोच की अपनी अपर बर्थ पर सोया था। गर्मी बढ़ने के चलते मेरी नींद खुली। नीचे झांकर देखा तो मिडिल बर्थ खुल चुकी थी और रिजर्वेशनधारकों के साथ दैनिक यात्री बैठकर बाते कर रहे थे। देर तक लेट-लेटे शरीर में हलका दर्द होने लगा था। मैं नीचे उतरा और जगह बनाकर बैठ गया। कुछ देर हवा खाने के बाद मैं वाशरूम के लिए गया। अपने कम्पार्टमेंट से कुछ ही दूर पहुंचा था कि कदम ठिठक गए। पहले आंखों के सामने हलका अंधेरा आया और फिर ब्लैक आउट हो गया। आंख खुली तो मैं कोच की फर्श पर पड़ा था। वहीं बैठे लोगों ने मुझे उठने में मदद की और अपनी सीट पर बैठा लिया। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर मेरा साथ हुआ क्या है।
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सुबह के 9 बज रहे थे। मैं ट्रेन के स्लीपर कोच की अपनी अपर बर्थ पर सोया था। गर्मी बढ़ने के चलते मेरी नींद खुली। नीचे झांकर देखा तो मिडिल बर्थ खुल चुकी थी और रिजर्वेशनधारकों के साथ दैनिक यात्री बैठकर बाते कर रहे थे। देर तक लेट-लेटे शरीर में हलका दर्द होने लगा था। मैं नीचे उतरा और जगह बनाकर बैठ गया। कुछ देर हवा खाने के बाद मैं वाशरूम के लिए गया। अपने कम्पार्टमेंट से कुछ ही दूर पहुंचा था कि कदम ठिठक गए। पहले आंखों के सामने हलका अंधेरा आया और फिर ब्लैक आउट हो गया। आंख खुली तो मैं कोच की फर्श पर पड़ा था। वहीं बैठे लोगों ने मुझे उठने में मदद की और अपनी सीट पर बैठा लिया। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर मेरा साथ हुआ क्या है।
कुछ देर बैठने के बाद मैं साधारण महसूस करने लगा। इसके बाद वाशरूम गया और फिर वापस आकर अपनी सीट पर बैठ गया। अपने साथ हुई घटना को मैंने सीट पर साथ में बैठे एक सज्ज्न से साझा किया। उन्होंने कहा कि तुम अभी खाली पेट हो, शायद इसी वजह से ऐसे हुआ हो। मुझे उनका लॉजिक समझ तो नहीं आया, लेकिन फिर भी मैं उनकी बात पर सहमत हो गया। ट्रेन जैसे ही बस्ती स्टेशन पर रुकी मैंने एक पानी की बोतल खरीद ली। बैग से बिस्किट निकाले और उन्हें खाकर पानी पी लिया। दिमाग में अभी भी यही चल रहा था कि आखिर मुझे चक्कर कैसे आ गया। इससे पहले मैंने कभी भी (गस) चक्कर का अनुभव नहीं किया था। वहीं मन को यह भी समझा रहा था कि अब कुछ खा लिया है, इसलिए सब ठीक हो जाएगा। ट्रेन वहां से चल चुकी थी। मुझे गोरखपुर में उतरना था। वहां से मुझे काठमांडु पहुंचने का इंतजाम करना था। दरअसल, कुछ दिनों पूर्व अचानक ही पशुपतिनाथ बाबा के दर्शन करने की इच्छा जागी थी। इसके बाद मैंने कुछ मित्रों से जाने को लेकर बात की, लेकिन कोई भी चलने को राजी नहीं हुआ। इस पर मैं अकेला ही सफर पर निकल आया था।
ट्रेन अच्छी गति से चल रही थी, इसी बीच मुझे फिर वाशरूम जाने के लिए उठना हुआ। वाशरूम गया और फिर ट्रेन के गेट पर खड़े होकर हवा खाने को मन हुआ। लेकिन मन में खयाल आया कि कहीं चक्कर न आ जाए। डर के चलते पीछे हटकर पार्टीशन से पीठ लगाकर खड़ा हो गया। वहां खड़े हुए कुछ ही देर हुई थी कि जिसका डर था वही हुआ। मैं फिर अचानक गस खाकर गिर पड़ा। आंख खुली तो लोग मुझे उठाने की कोशिश कर रहे थे।
मेरी समझ नहीं आ रहा था कि आखिर मेरे साथ क्या और क्यों हो रहा है?
मेरी समझ नहीं आ रहा था कि आखिर मेरे साथ क्या और क्यों हो रहा है?
क्रमश:
(*Parts of artwork have been borrowed from the internet, with due thanks to the owner of the photograph/art)
शनिवार, 8 अप्रैल 2017
Alwar : एक अजनबी शहर का दिल की धडक़न बन जाना
आज से ठीक एक साल पहले एक अजनबी शहर अलवर में कदम रखा था। मेरे पास सिर्फ कपड़ों से ठसाठस एक बैग, एक स्लीपिंग बैग और राजस्थान पत्रिका अखबार के कार्यालय का पता था। इस शहर के इतिहास या भूगोल की कोई जानकारी तो थी नहीं, हां यह जरूर सुना था कि मेव बहुल क्षेत्र है और आपराधिक घटनाएं यहां आम हैं। पहले दिन के कुछ घंटे तो रहने और खाने की कोई माकूल व्यवस्था न होते देख तनाव में ही बीते थे। लेकिन एक दिसंबर की ही शाम होते-होते इस शहर ने आखिर मुझे पनाह दे ही दी थी। इसके बाद वात्सल्य का जो निर्झर मेरे लिए इसके हृदय से फूटा, वो आज तक मुझे सराबोर किए है।
आज अरावली पर्वत श्रंखला की गोद में बसे इस खूबसूरत शहर में एक वर्ष का सफर पूरा होने पर मैं पीछे मुडक़र देख रहा हूं। कितना कुछ मिला है इस शहर से, इसी शहर में तो मैंने अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ एक वर्ष जिया है। जिसमें 365 दिनों को मैंने जीवन के विविध रंगों में घोलकर पिया। इसके आंगन में आशा के शिखर तक चढ़ा तो निराशा के पाताल तक गोता भी लगाया।
इसके गगन में मैंने ख्वाबों की परवाज भरी है। इसकी राहों पर ही मैंने मदमस्त बेफ़िक्रा होकर घूमना सीखा है। आज यह शहर मेरे दिल की धडक़न है। हर सांस इसकी खुशबू लेकर अंदर जा रही है।
आज अरावली पर्वत श्रंखला की गोद में बसे इस खूबसूरत शहर में एक वर्ष का सफर पूरा होने पर मैं पीछे मुडक़र देख रहा हूं। कितना कुछ मिला है इस शहर से, इसी शहर में तो मैंने अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ एक वर्ष जिया है। जिसमें 365 दिनों को मैंने जीवन के विविध रंगों में घोलकर पिया। इसके आंगन में आशा के शिखर तक चढ़ा तो निराशा के पाताल तक गोता भी लगाया।
इसके गगन में मैंने ख्वाबों की परवाज भरी है। इसकी राहों पर ही मैंने मदमस्त बेफ़िक्रा होकर घूमना सीखा है। आज यह शहर मेरे दिल की धडक़न है। हर सांस इसकी खुशबू लेकर अंदर जा रही है।
शुक्रिया अलवर मुझे अपनाने का...
शुक्रिया मुझपर बेपनाह मोहब्बत लुटाने का...
शुक्रिया उन सभी हमसफरों का भी, जिन्होंने इस एक साल के सफर को सुहाना बनाने में साथ दिया।
शुक्रिया मुझपर बेपनाह मोहब्बत लुटाने का...
शुक्रिया उन सभी हमसफरों का भी, जिन्होंने इस एक साल के सफर को सुहाना बनाने में साथ दिया।
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