शनिवार, 8 अप्रैल 2017

Alwar : एक अजनबी शहर का दिल की धडक़न बन जाना



आज से ठीक एक साल पहले एक अजनबी शहर अलवर में कदम रखा था। मेरे पास सिर्फ कपड़ों से ठसाठस एक बैग, एक स्लीपिंग बैग और राजस्थान पत्रिका अखबार के कार्यालय का पता था। इस शहर के इतिहास या भूगोल की कोई जानकारी तो थी नहीं, हां यह जरूर सुना था कि मेव बहुल क्षेत्र है और आपराधिक घटनाएं यहां आम हैं। पहले दिन के कुछ घंटे तो रहने और खाने की कोई माकूल व्यवस्था न होते देख तनाव में ही बीते थे। लेकिन एक दिसंबर की ही शाम होते-होते इस शहर ने आखिर मुझे पनाह दे ही दी थी। इसके बाद वात्सल्य का जो निर्झर मेरे लिए इसके हृदय से फूटा, वो आज तक मुझे सराबोर किए है।
आज अरावली पर्वत श्रंखला की गोद में बसे इस खूबसूरत शहर में एक वर्ष का सफर पूरा होने पर मैं पीछे मुडक़र देख रहा हूं। कितना कुछ मिला है इस शहर से, इसी शहर में तो मैंने अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ एक वर्ष जिया है। जिसमें 365 दिनों को मैंने जीवन के विविध रंगों में घोलकर पिया। इसके आंगन में आशा के शिखर तक चढ़ा तो निराशा के पाताल तक गोता भी लगाया।
इसके गगन में मैंने ख्वाबों की परवाज भरी है। इसकी राहों पर ही मैंने मदमस्त बेफ़िक्रा होकर घूमना सीखा है। आज यह शहर मेरे दिल की धडक़न है। हर सांस इसकी खुशबू लेकर अंदर जा रही है।
शुक्रिया अलवर मुझे अपनाने का...
शुक्रिया मुझपर बेपनाह मोहब्बत लुटाने का...
शुक्रिया उन सभी हमसफरों का भी, जिन्होंने इस एक साल के सफर को सुहाना बनाने में साथ दिया।

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