शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2016

क्या खाकी को सिर्फ गाली ही दोगे... तो फिर हेमंत, मुकुल और जिया को भी गाली दो... ----------------------- सोशल मीडिया आर्मी से जुड़ी पोस्ट से भरा पड़ा है। इसी बीच आज पुलिस स्मृति दिवस आ गया। लेकिन खाकी को लेकर चुप्पी है। और जब यह चुप्पी टूटेगी तो कुछ पोस्ट दिखेंगी, जिनमें कोई पुलिसकर्मी किसी महिला को पीट रहा होगा, बैठकर रिश्वत के पैसे गिन रहा होगा या ड्यूटी के दौरान सो रहा होगा। कितनी बुरी है हमारी पुलिस। लेकिन क्या सिर्फ बुरी ही है। आप हां भी कह सकते हैं, अगर सिक्के का सिर्फ एक पहलू ही देखें। दरअसल, हमने सिर्फ स्याह पहलू ही देखा या या यूँ कहें कि दिखाया गया। क्या कभी हमने ड्यूटी के लिए जान कुर्बान करने वाले मुम्बई में हेमंत करकरे, मथुरा में मुकुल द्विवेदी, कुण्डा में जिया उल हक़, मुरैना में नरेंद्र कुमार सिंह के बारे में सोचा है। क्या उनकी कुर्बानी शहादत नहीं है। पुलिस के जिस सिपाही की तस्वीर ड्यूटी पर सोते हुए छपी थी। क्या आपको बताया गया कि इस ड्यूटी से पहले कितनी रातों से सोया नहीं है। क्या आपने जाना कि कब से उसने अपने बच्चे का मुंह नहीं देखा। क्या आपको पता है उसके खाना खाने का कोई समय नहीं होता। आपको सात घंटे की ड्यूटी के बाद अगर एक घंटे अधिक ऑफिस में रुकना पड़ जाए तो न जाने कितने लेबर लॉज़ का आप हवाला देते हैं लेकिन उनके लिए ड्यूटी का कोई निर्धारित समय नहीं है। 24 घंटे ड्यूटी। इसके बाद जनता के प्रतिनिधि का रौब देखने की मजबूरी सो अलग। दिनभर सिर्फ़ अपराध, अपराध और अपराध के साए में जीना होता है। --- बुराइयां हैं। हर देश में। हर समाज में। हर विभाग में। आप में और मुझमें भी। लेकिन क्या हमें उससे ऊपर नज़र उठाने की जरूरत नहीं है। अगर आप चाहते हैं कि पुलिस अच्छी हो, उसका बर्ताव अच्छा हो तो आपको अपने बर्ताव में भी छोटी-छोटी तब्दीली लानी होंगी। इसके लिए शुरुआत धूप में ट्रैफिक कंट्रोल कर रहे सिपाही को अपनी बोतल से ठंडा पानी ऑफर करने से भी हो सकती है। सोचना होगा। गौर से देखना होगा।नहीं तो हम अनजाने में ही देश की माटी और हमारी व आपकी सुरक्षा में अपनी जिंदगी कुर्बान करने वाले सम्मान से वंचित रह जाएंगे। अंत में उन सभी खाकी के वीर सिपाहियों को नमन, जिन्होंने खाकी और देश का इक़बाल बुलंद रखा। ------------------------------- बता दें कि आज ही के दिन 21 अक्टूबर 1959 को लद्दाख सीमा पर चीनी सैनिकों के हमले में शहीद हुए सीआरपीएफ के दस जवानों की याद में हर साल पुलिस स्मृति दिवस मनाया जाता है। तब से 2015 तक करीब 34 हजार पुलिसकर्मी देश की आंतरिक सुरक्षा में शहीद हो चुके हैं।

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रविवार, 16 अक्टूबर 2016

ये नाकारा बच्चे हैं...

कल पेरेंट्स-टीचर्स मीटिंग में स्कूल जाना हुआ। उसी स्कूल में जहाँ से मैंने नवीं से बारहवीं तक की पढ़ाई की। और एक नाकारा स्टूडेंट के रूप में पासआउट हुआ। 
ये पहला मौका था इस तरह की मीटिंग में जाने का।गजब माहौल था। बच्चों के पिता तो कम माताएं ही अधिकतर आई थी। पिताओं के पास फीस चुकाने के अलावा किसी और भागीदारी का समय ही कहाँ लेकिन बेटा/बेटी अधिकारी से कम न बने। 
चलिए आगे के खुशनुमा नाजरे देखिये- माताओं के मीटिंग हॉल में घुसते ही महिला शिक्षकों का झुंड यह सिद्ध करने में जुटा है कि जिस बच्चे के साथ वो आई हैं वह दुनिया का सबसे नाकारा बच्चा है। वह सिर्फ अवगुणों से भरा है।
- उसका वर्क कभी पूरा नहीं रहता
- क्लास में कभी जवाब नहीं देता
- ऊटपटांग सवाल करता है
- उसकी शैतानियाँ बर्दास्त के बाहर हैं
- फ्रेंडशिप गंदे बच्चों से है
- बात करने का तरीका बहुत गंदा है...ब्ला...ब्ला...ब्ला।
इन सब उलाहनों के बीच बच्चों से टूटी फूटी अंगरेजी में बात। ताकि साथ आई माँ डर जाएं और मैडम से हिंदी में कोई सवाल न कर सकें। बात जी जी जी...तक रह जाए। अरे मैडम ये मीटिंग क्या सिर्फ उलाहना देने के लिए बुलाई थी। इस पर भी कुछ बात कर लेते कि बच्चे में अगर कोई कमजोरी है तो कैसे उसकी मदद की जाए।
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एक और नजारा- एक मैथ्स के शिक्षक, जिन्होंने मुझे भी पढ़ाया। प्रवचन दे रहे थे, मुझे 16 साल पढ़ाने का अनुभव है। मुझे क्लास के हर बच्चे का लेवल पता है। आपकी लड़की एवरेज है पर आगे जा सकती है अगर मेहनत करे। अरे क्लास के कुछ बच्चे तो बहुत टैलेंटेड हैं। उस लड़की का क्या नाम है...हाँ कम हाइट वाली। हां... बहनजी अगर वो लड़की न आए तो क्लास में पढ़ाने में मजा ही नहीं आता। क्या दिमाग है उसका। सवाल बोर्ड पे लिखा नहीं की फट से सॉल्व।

...अरे गुरु घंटाल...फिर तुम उसे क्या पढ़ा और सिखा रहे हो। वो तो खुद ही टैलेंटेड है। अगर ये एवरेज और वीक वाली ऐसा कर दिखाएँ तो सीना चौड़ा करो। इनको सिखाने में मजा क्यों नहीं लेते...मजा...!
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वैसे यह कहानी अधिकतर संस्थानों की है। सारा ध्यान उन बच्चों पर है जो तेज हैं न कि कमजोर को सपोर्ट करने में। कारण, बोर्ड एग्जाम मेरिट में सिर्फ वही इनका सिर ऊंचा करेंगे। एवरेज और कमजोर वाले तो नाकारा हैं...नाकारा।
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हालाँकि एक कोने में बैठा बुड्ढा इतिहास कुछ और ही कह रहा है... वो कहता है, जिन्हें इन सो कॉल्ड शिक्षकों ने नाकारा घोषित कर दिया। वो बच्चे सफलता के फलक पर तारा बनकर चमके हैं। उनके आविष्कारों ने दुनिया को राह दिखाई है।

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ऐसा है क्या...। मतलब वो E= mc2 वाला भी नाकारा था क्या। अच्छा तो वो हवाई जहाज वाले दोनों भाई। अरे वो जिसके सिर पर सेब गिरा था। और वो बल्ब वाला। अच्छा और भी बहुत सारे आविष्कार और खोज करने वाले ऐसे ही हैं।

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 नहीं नहीं ऐसा नहीं हो सकता। स्कूल में तो हमें ऐसा नहीं बताया गया। सर और मैम तो कहते थे वो सब बहुत महान थे।



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किसी स्त्री का मर्जी से किसी के साथ सोना हैरान करता है गैंगरेप नहीं

गैंगरेप के बाद युवती की हत्या, मासूम के साथ उसके चाचा द्वारा बलात्कार कर उसकी हत्या। उक्त दोनों घटनाओं से जनपद या यूं कहें समाज या यूं कहें मनवता शर्मशार है। ऐसा अखबार और न्यूज चैनल बता रहे हैं। मगर शर्म महसूस हो रही है या नहीं यह कहना थोड़ा मुश्किल है। खैर न भी हो तो क्या फर्क पड़ता है। सिर्फ शर्म कौन सी क्रांति ले आएगी। 
वहीं एक फोटो अखबार में देखी, पूर्वी यूपी के किसी जिले में एक महिला को घर से बाहर बैलगाड़ी में उसके पति ने बांध कर रखा है और रोज पीटता है। मामला पति के प्रेम संबंधों के विरोध का बताया गया। इधर, इंडिया टुडे का पिछला अंक नेपाल की गुमशुदा बेटियों का दर्द बयां करने की कोशिश कर रहा है। जो लखनऊ से लेकर जीबी रोड के कोठा नंबर 64 तक में ठूंस दी गई हैं।
चारों घटनाओं को अलग-अलग नजरिये से देखा और लिखा गया। मगर कोई भी इन्हें पढ़ या देख कर कुछ पलों से ज्यादा के लिए हैरान नहीं हुआ है, यहां तक मैं भी नहीं। हो भी क्यों, ऐसा कौन सा दिन होता है जिस दिन ऐसी घटनाएं नहीं होतीं। मुझे तो लगता है कुछ समय बाद ये घटनाएं न्यूज भी नहीं बनेंगी। कारण, न्यूज की परिभाषा ही यही कहती है कि जो नया और लोगों के लिए मनोरंजक है वही न्यूज है।अब और नया होने को रह ही क्या गया है।
भाई, देखो बाप बेटी का सौदा तो सालों साल से करता आ रहा है। अब रेप भी करने लगा है। इसमें बुराई ही क्या है। जब बेटी कोठे पर बैठेगी तो साला सैंकड़ों लोग उसके शरीर को मसलेंगे अगर बाप घर में उसे मसल रहा है तो प्रताणना कम ही समझो। अब जब बाप ऐसा कर सकता है तो चाचा, पड़ोसी और गांव का कोई व्यक्ति ऐसा कर दे तो कोई बहुत बड़ा दोष थोड़ी ही है। भाई, स्त्री तो भोग के लिए ही बनी है। जमकर भोगो। और मौका मिले तो आगे बढ़कर सांत्वना भी देने से न चूको..." अरे ये तो बहुत बुरा हुआ बेचारी के साथ ".... लेकिन मौका पाते ही तुम भी वही करो जिसके लिए सांत्वना देने गए थे। अब कोई और सांत्वना देने का मौका लपक ही लेगा।
हां, एक परिस्थिति है जहां सारी परिभाषाएं, सारी मान्यताएं उलट जाती हैं। पूरा समाज सच में शर्मशार महसूस करता है। हर किसी के दिल में सांत्वना की जगह गुस्से के गुबार उठने लगते हैं। जब भोग के लिए बनी यह स्त्री अपनी मर्जी से किसी को अपना जिश्म सौंप दे या शादी के बंधन में बंधने के लिए मजबूर होकर भाग जए। यह तो पाप है महापाप। छी… सभी को घिन आने लगती है उससे, है ना। अरे भाग न भी गई हो महज मुस्कुरा कर किसी से बात भी कर ले तो समझिए सारी मर्यादाएं तार-तार हो गईं। मानों एक मछली ने सारा तलाब गंदा कर दिया हो। सभी बदबू से कराह उठते हैं। कमाल है भाई। धन्य है समाज। धन्य हैं मर्यादाएं। धन्य है समाजी। जिंदाबाद जिंदाबाद।
नोट- उक्त समस्या के कई अन्य महत्वपूर्ण पहलू भी हैं।



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मातृत्व के ये भी मायने...

महिलाओं को दिया गया मातृत्व का वरदान परिस्थितियों के साथ अभिषाप भी साबित होता है। हमारी समाजिक कुंठित कर देने वाली व्यवस्था में बच्चे को गर्भ में नौ महीने रखना, प्रसवपीड़ा को बर्दास्त करना और उसका पालन-पोषण करना महिला की मजबूरी है। इसमें पुरुष का योगदान अर्थिक सहयोग तक सीमित है और कहीं-कहीं तो वह भी नहीं। 
काश र्इश्वर कोर्इ ऐसी व्यवस्था बनाता जिसमें पुरुष के मंसूबे बुरे होने पर महिला गर्भवती ही न होती। या फिर बच्चा साढ़े चार-चार महीने दोनों के गर्भ में पलता। मैं र्इश्वर में विश्वास रखता हूं और उसकी बनार्इ हर व्यवस्था में भी लेकिन फिर भी कर्इ बार मुझे ऐसा महसूस होता है कि महिलाओंं के साथ न्याय नहीं हुआ। उसकी संरचना भावनात्मक रूप से तो पुष्प से भी ज्यादा कोमल कर दी गर्इ लेकिन सामना करने के लिए परिस्थितियां पत्थर से भी कठोर और कांटों से भी ज्यादा नुकीली दी गर्इं।
यह तो सिर्फ विवाहित महिलाओं की दुश्वारियां हैं। सोचिये, अविवाहित महिला के लिए मातृत्व के कितने भयावाह मायने हैं। हर एक कदम फूंक-फूंक कर रखने को विवश है। सामाजिक कीचड़ में उसका जरा सा पैर फिसला नहीं कि लांछनों के गर्म तेल के कढ़ाहे उस पर उड़ेल दिए जाते हैं। फिर पूरी जिंदगी उसे इन फफोलों के साथ ही जीनी नहीं काटनी होती है।

नोट- यहां महानगरों की उन नारियों को फिलहाल अपवाद ही माना जा सकता है, जो देर रात तक काल सेंटरों में नौकरी करने, ब्वायफ्रैंड के साथ घूमने-फिरने को आजाद हैं। अनवांटेड-72 जैसी पिल्स उनकी पहुंच में हैं। शादी के बाद बच्चा कब पैदा करना है, अगर दो पैदा करने हैं तो उनमें कितना गैप रखना है इस पर पति से बहस भी कर लेती हैं।
यहां तो बात उनकी हो रही है जिन्हें कालेज गांव से दो किलोमीटर दूर होने की वजह से ही पांचवीं के बाद पढ़ार्इ से त्यागपत्र देना पड़ जाता है। कोर्इ लड़का अगर उसके चक्कर काटने लगे तो घर में लड़की को ही पिटार्इ कर तालों में जकड़ दिया जाता है। शादी किससे होगी, इसके बाद बच्चे कितने पैदा करने हैं इसपर भी उनका कोई जोर नहीं होता।



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Sankisa...एक कदम बुद्धि की ओर.…

हाल ही में उत्तर प्रदेश के फर्रूखाबाद जिले में स्थित संकिसा जाना हुआ। यह स्थान बौद्ध धर्म से जुड़ा है। मान्यता है कि यहां तथागत यानी गौतम बुद्ध ने अपनी मौसी गौतमी को स्वर्ग से आकर उपदेश दिया था। मैं संकिसा बतौर जिज्ञासु गया लेकिन स्थल की हालत और कुछ ढोंगियों की उपस्थिति ने भीतर का पत्रकार जगा दिया। एक अच्छी स्टोरी लिखने के लिए पर्याप्त साक्ष्य भी एकत्रित हो गए। एक पत्रकार तो संतुष्ट होकर लौटने को तैयार था लेकिन एक जिज्ञासु हताश था। हालाँकि अब भी उसे उम्मीद थी कि गौतम किसी ऐसे के पास ले जायेंगे जो उसकी पिपासा को शांत कर सकेगा और कहेगा बुद्धम् शरणम् गच्छामि..बुद्ध की शरण में चलो। मैं संतुष्टि और असंतुष्टि के भाव के बीच झूल रहा था.…फिर लौटने का फैसला किया लेकिन कुछ ही दूर आने के बाद मन में आया कि मुझे एक बार फिर वापस जाना है। बाइक वापस मोड़ दी लेकिन इस बार उस स्थान पर रुकना नहीं हुआ जहां तथागत स्वर्ग से लौटकर आये थे। मैं उससे एक किलोमीटर और आगे चला गया। मैं कुछ विदेशी मंदिर और साधना स्थल पहले ही देख चुका था, इस बार एक भारतीय मंदिर के आगे रुका जिसे मैनपुरी के किसी भिक्षु ने बनवाया था। अंदर गया तो एक बुजुर्ग भिक्षु मिले उन्होंने मुस्कान के साथ स्वागत किया। पहली बार कुछ सकारात्मक अनुभूति हुई। इसके बाद उनसे कुछ जानने-समझने बैठ गया। लेकिन कुछ देर बुद्ध के सिद्धांत बताने के बाद वो हिन्दू मान्यताओं और पाखंडों पर चोट करने लगे, इसी बीच दो अन्य भिक्षुओं का भी आगमन हुआ। वे दोनों देखने में विदेशी लगे (हालाँकि वो हमारे त्रिपुरा राज्य के थे)। कुछ देर बुजुर्ग भिक्षु को सुनने के बाद एक भिक्षु ने हस्तक्षेप किया। उसने हिन्दू धर्म की कुछ मान्यताओं का बेवजह खंडन करने पर बुजुर्ग भिक्षु को आड़े हाथ लिया। इसके बाद जो कुछ भी उसने कहा मैं डूबकर सुनता रहा। मुझे लगा गौतम ने आखिर मुझे एक सच्चे बौद्ध भिक्षु से मिला दिया है। इसके बाद उस युवा भिक्षु के साथ चर्चा शुरू हो गई । एक जिज्ञासु का चेहरा संतोष के भाव से खिलता जा रहा था। बौद्ध धर्म से लेकर दर्शन, देश-दुनिया के कई मुद्दों पर हमने खुलकर बात की। उसके पास से उठने का मन तो नहीं था लेकिन समय के अभाव ने विवश कर दिया।
बतौर जिज्ञासु मेरे पास लिखने को बहुत कुछ है। बतौर पत्रकार लिखने को बहुत कुछ है। लेकिन अब बहुत कुछ लिखने का मन नहीं कर रहा। अंत में ही सही गौतम इस जिज्ञासु को ज्ञान के एक ऐसे झरने के पास ले गए थे जो इसकी पिपासा को शांत कर सकता था लेकिन उसने शांत करने की जगह पिपासा और बढ़ा दी। उसने अंत में यह भी कहा कि बुद्धम् शरणम् गच्छामि...लेकिन अर्थ बदल चुका था उसने बुद्ध की शरण में नहीं बुद्धि की शरण में जाने को कहा। सच भी यही है, बुद्ध अपनी शरण में आने को कैसे कह सकते हैं, जब वो खुद किसी की शरण में नहीं गए।

Gandhi and Godse

I am prepared to concede that Gandhiji undergo suffering for the shake of nation. I shall bow in respect to the service and to him. But even this servant of the country had no right to vivisect the country by deceiving the people.
-Nathuram Godse

इन दिनों व्हाइ आइ एसेसिनेटेड गांधी पुस्तक पढ़ रहा हूं। इसमें नाथूराम गोडसे ने गांधीजी की हत्या की एक नहीं पूरी 150 वजह बताई हैं। पुस्तक को पढ़कर लगता है कि नाथूराम कोई सड़क छाप या सिरफिरा आदमी तो एकदम नहीं था। वह खुद को राष्ट्र भक्त समझता था, लेकिन हिंदू राष्ट्र भक्त। एक व्यक्ति के रूप में वह गांधीजी का बहुत सम्मान भी करता था। यही वजह है कि पूरी पुस्तक में हर जगह संबोधन गांधीजी कहकर ही किया गया है।
यहाँ सवाल ज़रूर उठता है कि एक सुलझे और समझदार आदमी के अंदर अमानवीय बीज कैसे बो दिए गये।... तो इसके मूल में भी तथाकथित धर्म ही मिलता है. इन तथाकथित धर्मों ने धर्म और अधर्म की ऐसी जटिल और व्यर्थ परिभाषाएँ गढ़ी कि मनुष्य इसे समझने के फेर में अपना मूल धर्म खो बैठा।
इसी की बानगी हिंदुओं का सर्वश्रेष्ठ धार्मिक साहित्य महाभारत है। इसमें धर्म और अधर्म का युद्ध भी मानवता की लाश पर ही हुआ था। अगर गांधी जी जैसा अहिंसा का पुजारी महाभारत का कोई पात्र होता तो वहां भी उस पात्र का अंत ऐसा ही होता, जैसा बिरला हाउस में हुआ। गांधीजी जैसा पात्र किसी बड़े धर्म में आप फिट नहीं बैठा सकते। कहीं जीजस तो कहीं पैगंबर का अंत करने के लिए बढ़ने वाले पहले गांधीजी का अंत करेंगे। यही नहीं कुछ पैगंबर की रक्षा के नाम पर भी गाँधी का सिर कलम कर देंगें।
गोडसे ने जो किया कहीं न कहीं यह विष हमारे धर्म ग्रंथों से ही निकलकर बाहर आया है। जबकि इन ग्रंथों को लिखने वालों ने तो कोशिश मीठा शहद बाँटने की की थी लेकिन इसकी व्याख्या करने वालों ने इसमें मतलब का चूना भी मिला दिया। और लोगों को धार्मिक विष हाथ लगा। गांधीजी के दौर में किसी को महावीर या बुद्ध के रूप में स्वीकार किया जाना संभव नहीं था। नहीं तो गांधी भी आज एक धर्म के रूप में जाने जाते।
अब देखिए बात गांधीजी की हत्या से शुरू की थी और पहुंच धर्म पर गई। दरअसल उनकी हत्या के मूल में तथाकथित धर्म ही तो है। पाकिस्तान बनने के पीछे तथाकथित धर्म है, इसके बाद गोडसे द्वारा उठाए गए कदम के पीछे तथाकथित धर्म है। और अफसोस इस बात का ही है कि हमने अब भी मूल धर्म को समझा नहीं। गौतम और महावीर ने अपना जीवन खपा दिया सिर्फ धर्म को समझाने में। लेकिन लोगों ने धर्म तो समझा नहीं दो नये धर्म ही बना डाले।
खैर धर्म अनंत धर्म कथा अनंता...
बापू की पुण्यतिथि पर उन्हें सादर नमन। बापू अफ़सोस आपको आज तक समझा ही नहीं गया। काश आप भी मनवता का अर्थ समझाने की जगह लोगों को एक नए धर्म की अफीम देकर गए होते। सच कहता हूँ असाराम के दौर में लाखों लोग धार्मिक नशे में धुत होकर झूम रहे होते।...
हालाँकि कुछ गाँधी भवनों में आज भी नित्य श्रद्धा की बाती प्रज्ज्वलित की जा रही है। उनका प्रिय भजन रघुपति राघव राजा राम गूँज रहा है....लव यू बापू।



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अगर उम्मीद से दुनिया कायम है तो, इसका थोपा जाना 'दुनिया' का अंत भी है...

कभी-कभी हमारे इर्द-गिर्द ऐसा भी घटता है जिसे लिखे बिना रहा नहीं जाता. लिखने के पीछे का उद्देश्या कोई संदेश देना नहीं, बस घटना से अंदर पनपे आक्रोश से फटते माथे को ठंडा कर देने की कोशिश मात्र होती है. आज फिर कुछ ऐसा ही घटा है, जो आँखों को गीला और रूह को झुलसा गया है. 
खबर उत्तर प्रदेश की राजधानी से, यहाँ जिंदगी मौत से हारी है. एक छात्र ने बड़ी माँ की साड़ीको फंदा बनाकर, खुद को दुनियाँ में लाए जाने के फ़ैसले को ग़लत साबित कर दिया है. हालाँकि उस मासूम ने इसके लिए ज़िम्मेदार कॉलेज के एचओडी को ठहराया है...और उम्मीदों को पूरा न कर पाने के लिए पिता से माफ़ी मांगी....
आप का अपना नज़रिया होगा...होना भी चाहिए...
लेकिन मुझे नहीं लगता किसी की प्रताड़ना शक्ति के उस पुंज को आत्माहत्या के लिए विवश कर सकती है. प्रताडित करने वाले से लड़ने में वह सक्षम होगा, लेकिन लड़ इस लिए नहीं पाया क्योंकि उसके कंधों पर उम्मीदों का बोझ था. उसे डर लड़ाई हारने का नहीं, इन उम्मीदों के बिखर जाने का था. ये उम्मीदें, उसने खुद कंधों पर नहीं उठाईं थी, आप ने उसके कंधों पर लाद कर घर से भेजा था उसे. जब भी वह कॉलेज के दबाव से मन हल्का करने के लिए घर आता, आप उम्मीदों का बोझ थोड़ा और बढ़ा देते.
अब आप इसे मेरी कोरी कल्पना करार देने की कोशिश ना करिएगा क्योंकि इन उम्मीदों को ढोने की कोशिश मैं कर चुका हूँ. अपने दोस्तों, भाइयों और जिंदगी में टकराए न जाने कितने लोगों को झुके कंधों से इन उम्मीदों को ढोते देखा है मैने.
लेकिन मैं जानना चाहता हूँ आप सब ऐसा क्यों करते हैं. क्या पौधे कि मजबूरी है कि अगर आपने समय से उसे खाद और पानी दिया है तो वह आप को पुष्प और फल दे ही. क्या आप उसे आज़ाद नहीं छोड़ सकते जैसे जंगलों में उगने वाले पेड़ और पौधे आज़ाद होते हैं. उन्हें भी तो कोई खाद और पानी देता ही है ना. आप सब क्यों घर का सूनापन दूर करने, परिवार की ज़रूरत, सामाजिकता, बुढ़ापे की लाठी बनाने के लिए एक जीवन का सृजन कर बैठते हैं. क्या इस सृजन को भी आप फैक्टरी में तैयार उत्पाद के रूप में ही देखते हैं, जो आप की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए बनाया गया है.
मुझे पता है, आप उसे बेइंतेहा प्यार करते हैं, उसपर अपनी जिंदगी न्योछावर करने को तैयार हैं. उसकी आँखों से निकले एक आँसू के लिए आप दुनिया से लड़ जाने को तैयार हैं. फिर क्यों आप अपनी उम्मीदों को उसके गले का फंदा बनते नहीं देख पाते.
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अगर आप बिना किसी उम्मीद के ही पौधे को खाद और पानी देने में खुशी ढूढ़ लें तो इसी पौधे का पुष्प आपको आनंदित कर देगा, उसकी खुशबू आप के रोम रोम को खिला देगी (और फिर गीता में कृष्ण भी तो यही कहते हैं... मेरी नहीं तो उन्ही की मान लीजिए).
परमपिता की बगिया में अनंत प्रकार के फूल हर सुबह खिलते हैं. कोई अपनी खुशबू तो कोई सौंदर्य से अपनी पहचान बनाता है. आप इन फूलों को स्वच्छन्द भाव से खिलने दो. इनका मुकाम सिर्फ़ आपकी बालकनी नहीं पूरी दुनिया को महकाना है. आप तो माली की भूमिका को स्वीकार करो. और ईश्वर द्वारे बनाए इस रंगमंच में अपने किरदार को खुलकर जी लो...यही जीवन है...
इसी में सारा आनंद...परमानंद... स्वर्ग...जन्नत...मोक्ष सब छिपा है...



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उजाले के लिए वह खुद बाती की तरह जले थे स्वामी रामकृष्ण परमहंस

19वीं सदी में हिंदू धर्म संक्रमण के दौर से गुजर रहा था। अंधविश्वास और कुरीतियां इसे बुरी तरह जकड़े हुए थीं। देश में तो हम इसका यशोगान कर रहे थे। लेकिन विदेशी धरती पर इसे हिकारत भरी नजरों से देखा जा रहा था। इसी दौर में एक गुरु धर्म के शुद्धीकरण के लिए प्रयासरत था. कुरीतियों की बेडि़यां कांटने और अंधविश्वास रूपी अंधकार को मिटाने के जतन कर रहा था। इसी जद्दोजहद के दौरान उसके पास एक युवा आया. उसकी ज्ञान की पिपासा देखकर इस गुरु की आंखें चमक उठी। गुरु ने खुद मूर्ति उपासक होते हुए भी उसे आत्मज्ञान के पथ पर अग्रसर होने के लिए प्रेरित किया. फिर क्या शिष्य ज्ञान की गहराइयों में गोते लगाने लगा. दर्शन, धर्म, जीवन के रहस्यों की गाठें खोलकर ऊचाईयाँ पाने लगा. वह समय भी आया जब गुरु दुनियाँ में नहीं रहे लेकिन उनका सपना फिर भी जीवित था.
उनका यह शिष्य 1893 में सात समंदर पार कर अमेरिका की धरती पर कदम रखता है। और उसका एक भाषण पश्चिम में हिंदू धर्म के प्रति व्याप्त तमाम भ्रांतियों को उखाड़ फेंकता है। जिनके दिलों में अब तक भारत और उसके सनातन धर्म के प्रति घृणा थी, आज उनमें करुणा के अंकुर फूट पड़ते हैं।
यह युवा कोई और नहीं, स्वामी विवेकानंद थे। उनके द्वारा जो ज्ञान का प्रकाश फैलाया गया उसमें अगर कोई बाती के रूप में जल रहा था तो वे थे स्वामी रामकृष्ण परमहंस।
कहते हैं स्वामी रामकृष्ण परमहंस न होते तो नरेंद्र कभी स्वामी विवेकानंद नहीं होते। यह संबंध कुछ वैसा ही था, जैसा दीपक, बाती और तेल में होता है। स्वामी विवेकानंद खुद को मिट्टी का छोटा दिया समझकर स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास पहुंचे। उन्होंने समर्पण रूपी तेल, बाती रूपी गुरु में उड़ेल दिया। फिर गुरु रामकृष्ण को तो बाती होकर जलना ही था।



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Bhangarh: Asia`s Most Haunted Place

भानगढ़ : एक सफ़र भूतियाना...
अपने देश में क्या दुनियाँ भर में भूत-प्रेत से जुड़ी बातों को सुनने और जानने का अलग ही क्रेज है। कोई इनसे डरता है, कोई नहीं डरता। कोई विश्वास करता है, कोई नहीं करता। लेकिन जानना और सुनना सभी चाहते हैं. आप किस्सा शुरू करो हर कोई आपको डूबकर सुनने को बेताब हो जाएगा.
तो हम भी दुनिया से अलग नहीं हैं।इन सबमें अपना भी ख़ासा इंटरेस्ट हैं. दिसंबर में अलवर आने से पहले ही भानगढ़ के बारे में काफ़ी कुछ सुना था. यहाँ आने बाद से ही भानगढ़ जाने की योजना बनने लग गई.
आज से करीब एक महीना पहले अगले दिन सुबह निकलने की तैयारी थी. प्लान फाइनल करने के एक घंटे बाद ही अचानक मुझे बुखार आ गया. अगले एक घंटे में मेरी हालत और खराब हो गई. फिर तीन रोज बुखार रहा. प्लान कैंसल होना ही था. इससे मन में एक आशंका ने भी घर कर लिया. इसके दो साप्ताह बाद फिर प्लान किया. बैग रेडी, केमरा बैटरी चार्ज्ड. सुबह 4.30 निकलना था. लेकिन हम फिर नहीं जा पाए. पहला प्लान फेल हुआ था, दूसरा भी हो गया. अब तो लगा कुछ तो खेल है भाई. क्या कोई रोक रहा है वहाँ जाने से....
खैर कल रात कोई पहले से प्लानिंग नहीं थी. रात ढाई बजे चाय पीते हुए अचानक मूड हुआ और दो घंटे बाद मैं और साथी Rajkamal Vyas निकल भी लिए.
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यहाँ आप जान लें कि राजस्थान के भानगढ़ किले को भूतिया किले के रूप में जाना जाता है. कुछ समय पूर्व एक टीवी चैनल ने इसे एशिया का most haunted place भी घोषित कर दिया. इंटरनेट से लेकर स्थानीय लोगों के पास तक इससे जुड़े डरावने क़िस्सों और कहानियों की भरमार है. यह तन्त्र साधना का एक केन्द्र भी माना जाता है. सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय से पहले यहाँ प्रवेश की मनाही है. इस अवधि में यहाँ न बंदर रुकते हैं न ही चारे की तलाश में आए मवेशी. रात को यहाँ चीखें और रोने की आवाज़े सुनी जाती हैं।
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हम सुबह साढ़े सात बजे पहुँच गए. इससे पहले रास्ते में देहाती चाय के साथ भैंस का ताज़ा कच्चा दूध पीकर बचपन की यादें ताज़ा की. राह में लोगों से भानगढ़ की कहानियाँ भी सुनी.
यहाँ पहुँचने के बाद किले के बहार बाइक पार्क की। बड़े ही रोमांच के साथ किले की चारदीवारी में प्रवेश किया. घुसते ही एक मंदिर है, यहाँ स्थानीय लोग पूजन-अर्चन के लिए आते हैं। आगे बढ़े, दिन था ऐसे में कुछ अप्रत्याशित घटने की आशंका कम ही थी. सामने ही किला दिख गया। इसे देख ऐसा लगा जैसे यह किसी त्रासदी का शिकार हो। अब यह खंडहर हो चुका है. कभी यहाँ बहुत संपन्न बाज़ार लगता था इसकी कहानी बयाँ करने को उसके अवशेष ही बांकी हैं. यहाँ के माहौल में अजब उदासी है. यह उदासी भूतिया अनुभूतियों से भी डरावनी लगी. कला की दृष्टि से सुरक्षा की दृष्टि से तैयार किया गया एक नायाब नमूना आज खंडहर में तब्दील हो चुका है. अब भी अंदर जाने की उत्किसुकता बरकरार थी।अंदर घुसते ही मायूसी के साथ उदासी बढ़ती गई। किले में ऊपर जाने के बाद उस जगह को जल्द से जल्द छोड़ने को जी कर रहा था. यहाँ जाने से पहले सबने भूतों की कहानी सुनाई थी लेकिन कोई उस वीरने की उदासी के बारे में एक लफ्ज़ भी न बोला था. यहाँ उदासी हवा में तैरती है।
इस दौरान हमने कुछ ऐसा भी देखा जिससे लगा यहाँ तंत्र साधना की जाती है. किले के अंधेरे में चिमगादड़ के झूण्डों की आवाज़ सच में डरावनी लगी.... लेकिन भूत अंकल से अपना सामना नहीं हुआ. खैर दिन भी था जब चिमगादड़ छिप कर बैठे थे तो वो भला चिलचिलाती धूप में हमसे मिलने क्यों आते. यहाँ सुरंग भी हैं, हो सकता है भूत अंकल वहाँ रेस्ट कर रहे हों पर उनमें घुसने की हिम्मत अपने में नहीं थी...
दोस्तों कुछ ऐसी रही अपनी भानगढ़ ट्रिप. आप भी घूमने जाइए क्या पता आपको वहाँ भूतों की मौजूदगी का अहसास हो जाए... अगर न भी हुआ तो कौन सा आप कहानी क़िस्सों पर विश्वास करना छोड़ देंगे... है कि नहीं....!

... और ज़िंदगी भर 'काश' आपको कुरेदेगा

समय के साथ समाचार की दुनिया में जो बदलाव आया है। वह सच में भयावह है। सूचना के नाम पर हमें अधिकांशतः निराशा और नाकारात्मकता परोसी जा रही है। थोड़ा बहुत जो सकारात्मक है, वह भी नाकारात्कता की अधिकता के चलते गौड़ हो रहा है। खैर इस विषय पर बात करने का मूड नहीं है। और बात करने का फिलहाल कोई लाभ भी नहीं। मैं तो बेचैन हूं, राजस्थान के एक छोटे से कस्बे शाहजहांपुर की कोमल के दुनिया को अल्विदा कहे जाने से। उसने नवीं कक्षा में दूसरी बार फेल होने पर मौत को चुन लिया (ऐसा कहा गया)।
जब भी किसी मासूम का शिक्षा के बोझ तले दबने से दम घुटता है, मैं बहुत बेचैन होता हूं। जिस शिक्षा का उद्देश्य जीने की ललक बढ़ाना है तो आखिर उसका यह कौन सा रूप है जो किसी को मौत क़ी ओर ढकेल देता है। एक परीक्षा में असफल होना कैसे जिंदगी के उद्देष्य का असफल होना साबित हो जाता है। कहीं तो कमी है...। जिंदगी सिर्फ वह नासमझ नहीं हारता। यह हमारी व्यवस्था की हार होती है. उसका जाना हर बार इस व्यवस्था पर एक बड़ा प्रश्न चिह्न होता है. और फिर शिक्षा का जो मौजूदा स्वरूप आज हमारे सामने है, वह हमारी ही उपज है। जिसे इस दुनिया में आई मासूम कोमल पर हमने लागू कर दिया था।
काश! समय रहते हम इस गुड़िया को शिक्षा के सच्चे स्वरूप से रूबरू करा पाते। काश! हम उसे दुलार कर समझा पाते कि कोमल, यह परीक्षा पैमाना नहीं है तुम्हारी क्षमताओं के आकलन का...। यह एक रेस नहीं जीत पाई तो क्या तुम्हें तो पंखों से उड़ान भरनी है। सपनों की उड़ान... और उसके लिए यह गणित, विज्ञान और अंग्रेजी में दक्ष होना कोई अनिवार्यता नहीं।
लेकिन यह काश... शब्द। हार के बाद की थकान सा लगता है। जो एक लंबी सांस ले लेने को विवश कर देता है। आगामी समय हमारे मासूमों की क्षमता का आकलन करने को स्थापित किए गये इम्तिहानों के इन्हीं झूठे और जुल्मी परिणामों का है। आप सभी अपने इर्द-गिर्द नजर रखें। हो सकता है किसी कोमल या कार्तिक के कांधे पर आपके द्वारा रखा गया दुलार भरा हाथ उसको जिंदगी की जंग हारने से बचा ले। नही तो आपके पास भी सिर्फ काश ही बचेगा... जो जिंदगी भर आपके साथ जिंदा रहकर आपको अंदर से कुरेदता रहेगा कि काश...!


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I also used to Abuse Gandhi

मैं भी देता था बापू को गाली...
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मेरा जन्म और पालन ऐसे माहौल में हुआ जहाँ गांधीजी के लिए सिर्फ और सिर्फ अपशब्द ही सुने। उन्होंने देश को बर्बाद कर दिया यही जाना। इसका असर यह हुआ कि बचपन में मैं भी उनके लिए न जाने क्या-क्या कहता था। अपनी हमजोली में अक्सर नाथूराम गोडसे के फैसले की तारीफ़ करता। जबकि गांधीजी के बारे में मेरी समझ इतनी ही थी कि 2 अक्टूबर को उनकी जयंती मनाई जाती है।
थोड़ा सबूर आने पर चीजों और उनके कारणों को जानने में रुचि पैदा होने लगी। इसी क्रम में गांधीजी के कुछ विचार मुझ तक पहुंचे। मैं उनको समझने का प्रयास करने लगा। फिर उनसे जुड़े कुछ संस्मरण सुने। अब उनको जानने की उत्कण्ठा जन्म ले चुकी थी। इसी दौरान उनकी आत्मकथा सत्य के प्रयोग हाथ लग गई। इसका एक-एक पन्ना सीढ़ी की तरह मुझे गांधीजी की ओर बढ़ाता ले गया। और जब यह किताब पूरी हुई तो मैं बुरी तरह आत्मग्लानि में डूब चुका था।
लेकिन जैसे-जैसे गांधीजी मेरे लिए बापू में परिवर्तित होते गए, आत्मग्लानि का भाव पिघलने लगा। बनावटीपन का खोल मेरे शारीर से उतरने लगा। अब बापू मुझे सरल और सहज बनाने लगे। शायद किसी भी मनुष्य के लिए सबसे कठिन हर परिस्थिति में सहज और सरल बने रहना ही है। आज भी जब मैं उनके दिखाए मार्ग से डिगता हूँ तो उनके विचार मेरी उंगली पकड़ वापस ले आते हैं। याद दिलाते हैं कि मुझे अपनी सहजता और सरलता खोनी नहीं है।
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यहाँ मैं माफ़ी चाहूँगा कि मैंने गांधीजी को देश को आज़ादी दिलाने के लिए उनके योगदान के लिए नहीं जाना। मैंने तो उन्हें एक विचारधारा के रूप में जाना। वो विचारधारा जिसने दुनिया को सत्य और मानवता की सरलतम परिभाषा से परिचित कराया।
अंत में एक बात और अब अगर कोई मेरे सामने गांधीजी को गाली देता है तो मैं हंस देता हूँ। और बस इतना ही कहता हूँ कि तुम उन्हें जानते ही नहीं हो मौका मिले तो उन्हें जानने की कोशिश करना।



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शनिवार, 15 अक्टूबर 2016

क्या हर पुरुष ऐसा ही होता है...? कहीं मैं भी ऐसा ही तो नहीं...

हर घटना के बाद शर्म से नज़रें झुकती हैं। हर बार खुद की ही ओर शकभरी नज़रों से देखना होता है। क्या हर पुरुष ऐसा ही होता है...? कहीं मैं भी ऐसा ही तो नहीं...। 
यहां याद आते हैं अपने ही सहकर्मियों, सहपाठियों द्वारा महिला सहकर्मी और सहपाठी पर किए गए भद्दे कमेंट। और उसपर अपनी लाचार मौन स्वीकृति। फिर याद आते हैं वैश्याओं के साथ उनके अनुभव के किस्से, महिलाओं को लेकर उनकी धारणा। जिसमें वो राह चलती किसी महिला को अपने अनुभव से वैश्या होने का पता लगा रेट तक बेझिझक पूछ सकते हैं। 
लेकिन इस धारणा के लिए जिम्मेदार कौन है। सिर्फ वही ...? या समूचा सामाजिक ढांचा...।
यह सच है कि किसी के माता-पिता, भाई-बहन यह नहीं सिखाते की वे घर के बाहर हर युवती-महिला को गंदी नज़र से देखें, उनके साथ छेड़खानी करें या उनके जिश्म को नोंचे। लेकिन उतना ही सच यह भी है कि हम उन्हें यह गाइड भी नहीं करते कि उन्हें कैसे देखें और बिहेव करें। होता तो यहाँ तक भी है कि हम उन्हें गलत पाकर भी उन्हें बचाने के लिए पैरवी करने लग जाते हैं। जबकि यहां सबक का बीज बोया जाना जरुरी था। हवालात की हवा से अगर बचा भी लाए तो कम से कम कान पकड़कर माफ़ी तो मंगवाना ही था। वह समझे तो कि उससे गलती हुई, इसे किसी भी कीमत पर दोहराना नहीं है।
बात यहीं खत्म नहीं होती। हमें यह भी समझना होगा कि विकास के साथ हम किस संस्कृति का अनुसरण कर रहे हैं। वह संस्कृति गलत नहीं है लेकिन उसके साथ तालमेल बिठाने में हमारे समाज में हर चीज का ढका होना घातक साबित हो रहा है। आखिर कब तक हम अपने बच्चों से खुलकर बात न कर भरमाते रहेंगे। मान लें कि हम और आप उनको यह बताने में असमर्थ हैं कि उसका छोटा भाई या बहन दुनिया में कैसे आया। लेकिन यह तो बता ही सकते हैं कि चिड़िया अंडे से कैसे बाहर आती है।
आप परिभाषा नहीं बता सकते हैं न सही, कम से कम ए बी सी... सिखाने का प्रयास तो करिए। क्योंकि बाल मन के प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़ना गंभीर है। जिसके मन में प्रश्न उठा है वह उत्तर तो खोजेगा ही। लेकिन इसके लिए इंटरनेट के दौर में माध्यम क्या अपनाएगा यह चिंतनीय है। और इससे भी चिंतनीय है उसे मिलने वाला जवाब। यही छोटे-छोटे जवाब उसके व्यक्तित्व का निर्माण करेंगे। यही तय करेंगे कि समाज में उसकी भूमिका क्या होगी। हम बच्चों को किसी स्कूल या टीचर के सहारे नहीं छोड़ सकते। क्योंकि किताबों और मौजूदा शिक्षा पद्धति की अपनी सीमाएं हैं। बच्चे के पहले और आखिरी शिक्षक तो आप ही हैं।
अब देखिए बात समाज की शर्मिंदगी से शुरू हुई थी और आ गई बचपन पर। लेकिन सच भी तो यही है कि हमारे सामाजिक सिस्टम का मदरबोर्ड भी माँ और पिता ही हैं। यही तो हैं समाज के ताने-बाने के आधार।
और फिर समाज से जिस संक्रमण को हम ख़त्म करना चाहते हैं उसके लिए कोई कानून पर्याप्त भी तो नहीं है। न ही कोई कानूनी सजा अंकुश लगा सकती है। इसके लिए प्रयास बीज बोए जाने के साथ ही करने होंगे।
अंत में उम्मीद यही है कि मानव सभ्यता ने बहुत से उतार चढ़ाव देखे हैं। साझा प्रयास होगा तो हम इस संक्रमण से भी उभरेंगे। घुटन से मुक्त एक स्वस्थ समाज में हम फिर सांस लेंगे। हर जानी, अनजानी राह से गुजरती बच्ची को हक़ से दुलार सकेंगे। उसकी खिलखिलाहट पर अपनी जान निसार कर सकेंगे।


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11 साल की बच्ची में क्या देख लेते हैं लोग...?
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वैसे तो ख़बरों की दुनिया में रहकर भी ख़बरों से बेखबर रहने की कोशिश रहती है। लेकिन कुछ खबरें क्या, कहाँ, कब, किसने, क्यों और कैसे से परे निकल जाती हैं। जिन्हें पढ़ते हुए सामान्य होने के लिए आंखें बंद कर दो-चार गहरी साँसें लेनी पड़ती हैं। ये ऐसी खबरें हैं जिन्हें पढ़ने पर अंतरिक्ष में हमारी उपलब्धियों पर गर्व करने की जगह वह थोथी लगती हैं। ऐसा लगता है कि हम सिर पर तो ताज लिए हैं लेकिन पांव की बेमाइयां फंटी और वे कीचड़ से सने हैं। बात खबर की ही करते हैं।
कल अलवर के एक गांव से एक बच्ची को एक महिला के चंगुल से पुलिस ने आज़ाद कराया। महिला उससे देह व्यापार कराती थी। महिला के मुताबिक वह उसे कोलकाता से 10 हजार में खरीद कर लाई थी। उसके माँ-बाप उसे यहां खुद छोड़कर गए। अब जब महिला उसे खरीद कर लाई थी तो उसके लिए वह व्यापार की सामग्री ही हुई। अगर वह उसका इस्तेमाल कर पैसे कमाती है तो क्या बुरा है...? लेकिन माँ-बाप...।
बच्ची की उम्र पता है न महज 11 वर्ष। उसे तो नाबालिग कहते भी नहीं बनता। ऐसे स्थानों पर जाने का मेरा कोई अनुभव भी नहीं है। जो कुछ जाना है, अखबारों, मैगजीनों और फिल्मों की ही नज़र से जाना। हालांकि मन में जरूर है कि कभी हिम्मत जुटाकर समाज के इस स्याह पहलू से भी रूबरू होना है।
आप फिर सोचिए महज 11 वर्ष की बच्ची। हमारे घरों में भी तो इस उम्र की बेटी और बहने हैं। इस उम्र में उसके शरीर का विकास ही क्या होता है। उससे हैवानियत करने कैसे पहुँच जाते हैं लोग। उसमें ऐसा क्या देख लेते हैं लोग। लेकिन इन घटनाओं से अब चौकते नहीं आप। न ही किसी चैनल पर कोई एंकर गला फाड़कर चिल्लाता है। न ही यह किसी पार्टी के लिए मुद्दा बनता है। न इसके लिए कोई कैंडल मार्च। न ही कोई फ्लैट और नकद राशि दिए जाने की घोषणा...। क्यों...।
क्या यह सामूहिक दुष्कर्म नहीं है। क्या इसके साथ जबरदस्ती करने वाले रेपिस्ट नहीं हैं। वजह क्या है...? सफ़ेदपोश, खाकी और सभ्य समाज के नकाब के पीछे छिपे दानवी चेहरों का देहव्यापर से किसी न किसी रूप में सम्बन्ध होना...छी...।
अरे वो महज 11 साल की बच्ची है...11 साल की।
हमारे और आपके लिए यह दुनिया कितनी खूबसूरत है, लेकिन वो इसका कौन सा रंग देख कर खुश हो सके। पुलिस की मदद से मुक्त तो हो गई लेकिन जाए किसके पास...। उन माँ-बाप के पास जो खुद चलकर उसे नर्क में धकेल गए थे।
कितना अजीब लगता है कि जिस दौर में हम जानवरों के अधिकारों के लिए सजग होकर लड़ाई लड़ रहे हैं। उसी समय मनुष्य के अधिकारों का यह हश्र है। अब शोक, संताप नहीं करिए...जागिए! मनुष्य होने का फ़र्ज़ अदा कीजिए। अगर गौर करेंगे तो मानवता को शर्मशार कर देने वाली ऐसी गतिविधियों को अपने आसपास ही होते महसूस कर सकेंगे। आज कई एनजीओ इसके लिए काम भी कर रहे हैं। 1098 भी इसी प्रकार की सेवा है। आप यह टोल फ्री नंबर डायल कर इसकी सूचना देकर भी मदद कर सकते हैं।
आप जिम्मेदार नागरिक बनकर देश और तिरंगे की इज़्ज़त से पहले सच्चे मनुष्य होने की ओर कदम बढ़ाइये... क्योंकि ये नन्ही लाड़ो ही राष्ट्र की सच्ची शान और हमारा अभिमान हैं।
अंत में माफ़ी गुड़िया, मैं तुम्हारे लिए कुछ न कर पाया लेकिन वादा है कि आज से सजग रहकर किसी भी कली को खिलने से पहले मुरझाने नहीं देने की पूरी कोशिश करूंगा... क्या आप भी इस नन्ही गुड़िया से वादा करते हैं...।



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Love you Gulzar

लव यू दादू...
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गुलज़ार दादू ये तुम्हारे चांदी जैसे बाल बड़े खूबसूरत लगते हैं। और तुम्हारी मांग तो वैसी बनी है जैसी मांग बनाकर माँ स्कूल भेजती थी। क्या तुम मम्मी से अब भी डरते हो या मेरी तरह गुड ब्वाय बनकर रहना चाहते हो। लेकिन एक बात बताओ हर वक्त तुम सफ़ेद लिबास में क्यों रहते हो। जानते हो बुड्ढे से दिखने लगते हो। और तुम अभी बुड्ढे नहीं हुए हो, आज ही तो तुम्हारा जन्मदिन है।
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दादू पता है जब तुमने मेरे लिए लिखा था...जंगल जंगल बात चली है पता चला है, चढ्ढी पहन के फूल खिला है फूल खिला है... तब मैं मोगली बन गया था। और अपनी हिरण छपी चढ्ढी पहनकर पूरे घर में दौड़ा फिरता था। फिर तुमने लिखा अ आ इ ई, अ आ इ ई, मास्टर जी की आ गयी चिट्ठी... और मैं खेल खेल में लिखना सीख गया।

और जब तुमने लिखा, हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करें...तो मैं स्कूल में था और मन, अच्छाई, बुराई समझने के करीब जाने लगा। अब तुम खुद चलकर ये कहने आए, प्यार इकतरफा न होता है न होगा... तब मैं किशोरवस्था को पार कर युवा अवस्था की दहलीज पर पांव रख रहा था। कीसी की सुनने को तैयार न था। पर तुम दुलारते हुए आकर्षण और प्यार के अंतर को समझाने ले गए।
फिर जब समुद्र की हवा की तरह ही हवा नमक इश्क़ का लेकर आई तो ये लबों को छूता हुआ जुबां से लग गया। तब मैं तुम्हारे पास खुद दौड़ा दौड़ा आया। तुमने सीने से लगा लिया। और मैं बसंत और पतझड़ के तमाम रंगों से गुलज़ार हो गया। लव यू दादू...


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Chand Bawari of Abhaneri

... और चांद सी बावड़ी की एक झलक पाने को बावले से हो गए
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समय दोपहर के बारह के करीब है और सूरज अपने शबाब पर है। हर्षद माता के मंदिर के दर्शन कर हम चांद बावड़ी को निहारने के लिए आगे बढ़ रहे हैं। बाइकें हमने मंदिर के सामने ही छोड़ दी हैं। क्योंकि यहां से बावड़ी का रास्ता चंद कदमों का ही है। बावड़ी परिसर के प्रवेश द्वार पर ही एक छोटा मंदिर है। किसका है, यह गौर नहीं किया। वजह, हम बावड़ी की एक झलक पाने को बावले हो रहे हैं। और आखिर अलवर से 70 किलोमीटर दूर इस बावड़ी के लिए ही तो खिंचे आए हैं। कुछ ही क्षणों में हम उत्तर दिशा में स्थित बावड़ी के मुख्य प्रवेश द्वार पर पहुंच गए। यह कोई खास अकर्षक नहीं लगा। एक बार को तो यह भ्रम भी हुआ कि यहीं से प्रवेश करना है या आगे से कोई द्वार है। लेकिन हमें यहीं से प्रवेश करना है। इसके बाहर ही लगे शिलापट के अनुसार 100 फीट गहरी चांद बावड़ी का निर्माण 9वीं शताब्दी में निकुभ राजवंश के राजा चांद ने करवाया था। वे 8वीं-9वीं शताब्दी में आभानगरी के शासक थे। बावड़ी के निर्माण का मुख्य उद्देश्य नगरवासियों की पानी की समस्या का व्यावहारिक समाधान करना था। इस बावड़ी में वर्षा जल को संग्रहीत किया जाता था, जिससे पूरे साल इसमें पानी उपलब्ध रहता था।
जानकारी प्राप्त कर हम अंदर घुस गए। सामने बैठे पुरातत्व विभाग के कर्मचारी बाई ओर जाने का इशारा करते हैं। यहां एक आश्चर्य यह भी हो रहा है कि इसका कोई प्रवेश शुल्क ही नहीं है।
साथी वहीं रुक जाते हैं जबकि मेरे कदम तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। और कुछ आगे बढ़ने के बाद ही कदम ठिठक गए...। क्योंकि सामने है स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना चांद बावड़ी। मैं तो बस इसकी सीढ़ियों को निहारे जा रहा हूं। इन सीढ़ियों में खोए हुए मन में ख्याल आ रहा है कि एक कुएं को भी इतना भव्य रूप दिया जा सकता है। एक हजार साल से भी पुरानी इस बावड़ी की कितनी सुंदर डिजाइन तैयार की गई। बावड़ी के तीन ओर 3500 सीढ़ियाँ बनाई गई हैं। इन्हें निहारने के अलौकिक अहसास को शब्दों व कैमरे के लेंस से बयां कर पाना संभव ही नहीं है। जल संपन्न स्थानों पर निवास करने वालों के लिए इसकी भव्यता अधिक चौकाने वाली है। उनके लिए जलस्रोतों की कीमत ही क्या है। उन्हें तालाब और कुएं आज व्यर्थ लगते हैं। इसी लिए उन्हें पाटकर धड़ल्ले निर्माण किया जा रहा है। लेकिन समझने की बात यह है कि अति, इति का ही दूसरा रूप है।
इसी बीच बावड़ी के उत्तरी भाग में स्तंभों पर बनी दीर्घा की छत से हमारे साथी राजकमल आवाज देते हैं। मैं जैसे ही उनकी ओर देखता हूं वे कैमरे को ज़ूम कर मेरी पिक क्लिक कर लेते हैं। बावड़ी के दक्षिण और पश्चिम में बने बरामदों में आभानेरी में खुदाई से प्राप्त व हर्षद माता मंदिर से आई कला कृतियों को प्रदर्शित किया गया है। इन्हें देखकर यहां के शासकों के शिल्प कला के प्रति प्रेम और कुशल शिल्पियों के कला के प्रति सर्मण को महसूस कर रहा हूं। सब कुछ सुव्यवस्थित देखकर अच्छा लग रहा है।
दक्षिण में पहुंचने पर उत्तरी भाग में बनी तीन मंजिला दीर्घा का भव्य स्वरूप दिखाई दे रहा है। बताया गया कि इसके दो मंडपों में महिषासुरमर्दिनी और गणेशजी की प्रतिमाएं स्थापित हैं। इसमें राजा का एक नृत्य कक्ष व सुरंग भी है। इसी दौरान बावड़ी में नीचे की ओर गौर से देखने पर प्रतीत होता है कि एक घड़ा पानी लाने के लिए उस समय कितना संषर्घ करना होता होगा। इसके लिए 1200 सीढिय़ां उतरो और फिर भरा घड़ा लेकर इतनी ही सीढिय़ां चढ़कर ऊपर आओ। यहां एक मान्यता और है कि इंसान जिस सीढ़ी ने नीचे जाता है, उससे ऊपर नहीं आ पाता। क्योंकि यह भूलभुलैया भी है। हमारा भी काफी मन है इसमें नीचे उतरने का लेकिन यहां बावड़ी के चारोओर लोहे की ग्रिल लगी है। ग्रिल को लांगना कोई कठिन काम तो नहीं लेकिन अंदर प्रवेश पर पाबंदी है।
अब हम सभी साथी अपने कैमरों में बावड़ी की सुंदरता को कैद करने में व्यस्त हो गए। यहां विदेशी पर्यटक भी अच्छी संख्या में पहुंचे हैं। इसकी एक वजह इस बावड़ी का जयपुर-आगरा हाईवे से काफी नजदीक होना है। यहां स्थानीय पर्यटक विदेशी मेहमनों के साथ फोटो खिंचवाने को बेताव हैं तो विदेशी मेहमान चटकीले कपड़े पहने मुंह पर उन्मुक्त मुस्कान लिए भारतीय चेहरों को कैमरे में कैद कर साथ ले जाने में हर्षित। हर कोई फोटोग्राफी में मशगूल है।
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इस बीच एक साजिश रची गई...
इसी बीच मेरे और साथी राजकमल के मन में खुराफत दस्तक दे गई है। बावड़ी के बाहर से अपनी हर एंगल से फोटो क्लिक कराने के बाद भी संतोष नहीं हुआ है। दरअसल हमारे साथ बावड़ी की डेफ्त नहीं आ पा रही है। इसलिए हम बावड़ी के अंदर प्रवेश की साजिश रचते हैं। इसके लिए मैंने पहले बावड़ी का एक चक्कर लगाकर रेकी करने का फैसला लिया है। मैं प्रवेश द्वार की ओर बढ़ रहा हूं। यहां बैठे कर्मचारियों को देखा, वे बहुम एक्टिव प्रतीन नहीं हुए। आगे बढऩे पर एक मंदिर दिखाई दिया। अरे अभी यहीं से तो गुजरा था, लेकिन इसपर नजर ही नहीं पड़ी। दरअसल मैं तो बावड़ी की झलक के लिए दौड़ा गया था। इस मंदिर में अच्छी संख्या में स्थानीय लोग आ रहे हैं। अंदर रखी मूर्ति रूपी छोटी शिलाओं पर लगे बंदन के लेप से ये हनुमान जी की जान पड़ रही हैं। हालांकि इसकी पड़ताल करने की इच्छा नहीं है। दिमाग में तो साजिश घर कर गई है न।
आगे नजर पड़ी तो सामने कोने पर झाड़-फूंक चल रही है। हमारी संस्कृति में इसका भी स्थान है। यह सही है या गलत कहना मुश्किल है। हां, लेकिन अति तो किसी भी चीज की सही नहीं है। बावड़ी की पूरी परिक्रमा करने के बाद वापस साथी राजकमल के पास पहुंच गया। तय किया है कि सामने से आ रहे लोगों के झुंड जैसे ही इस ओर से गुजर जाएंगे हम में से एक अंदर प्रवेश कर जाएगा। हम दक्षिण की ओर से सुरक्षा को भेदने की तैयारी में हैं। यहां से प्रवेश के दो फायदे हैं। एक तो बावड़ी का पूर्ण स्वरूप कैमरे से यहीं से कैद किया जा सकता है। दूसरा, यहां से प्रवेश करने पर पुरातत्व विभाग के कर्मचारियों की नजर पड़ने की गुंजाइश कम है। लेकिन एक समस्या अब भी है। ठीक दाई ओर के कोने में बैठा झाड़-फूंक करने वाला ओझा। अगर उसने देख लिया तो शोर मचा देगा।
अब पर्यटकों का झुंड गुजर गया और बावड़ी में भीड़ कम हो गई है। हम अंदर घुसने की तैयारी में हैं। यहां आशंका है कि एक व्यक्ति की ही फोटो क्लिक हो पाएगी। क्योंकि सामने बैठा ओझा देख ही लेगा। इसके बाद हम दोनों में पहले आप-पहले आप। अपन लखनवी तहजीब की मिसाल को कायम रखते हुए साथी राजकमल को पहले प्रवेश करने के लिए मना लेते हैं। आँखों ही आंखों में इशारा होता है और साथी राजकमल झट से ग्रिल को लांघकर अंदर घुस जाते हैं। उधर ओझा ने देख ही लिया और शोर मचाना शुरू। इस पर पुरातत्व विभाग के कर्मचारी भी सामने की दीर्घा की छत पर आ जाते हैं और चिल्लाते हैं। लेकिन हम निर्भीक होकर कैमरे में फ्रेम सेट कर इस यादकार पल को कैद कर लेते हैं। उन लोगों के सुर में सुर मिलाते हुए चेहरे पर मुस्कान के साथ मैं भी साथी राजकमल को बाहर आने के लिए कहने लगता हूं। इस बचकानी हरकत के लिए खुद पर हंसी आ रही है। लेकिन यह खुद को चुटकी काटकर देखने जैसा है, कि हां अभी हम जिंदा हैं।
अब तैयारी वापसी की है। इस बीच साथी राजकमल मेरी भी फोटो बावड़ी के अंदर भेज कर क्लिक करने की भरसक कोशिश करते हैं। पुरातत्व विभाग के कर्मचारियों से अनुरोध करते हैं। लेकिन वे मानते ही नहीं। इस बीच वे पूछते हैं कि आप लोग क्या काम करते हैं। और हमारे बताते ही कि एक अखबार में हैं। अब तो संभावनाएं पूर्णरूप से समाप्त हो गई हैं। और वो अब हमने विनती करते हैं कि सर हमारे भी बाल-बच्चे हैं। हम थोड़ा शर्मिंदा सा होकर वहां से निकल लेते हैं। समय दोपहर एक बजे के पार है। अब लौटने की जल्दी हो रही है। पांच बजे ऑफिस भी पहुंचना है।हम बाहर आकर परिसर में लगे पेड़ की छाव में बचे फल खाकर और बाहर की एक दुकान से चाय पीकर चल दिए हैं। इस बार चयन बांदीकुई के अंदर वाले रास्ते की जगह मेगा हाईवे का ही किया है। रास्ते में ही किसी ढाबे पर खाना भी खाने की तैयारी है। अलवर की सीमा में प्रवेश के साथ ही बाइक चलाते हुए हम दोनों ओर बने ढाबों पर नजर दौड़ाने लगे हैं। ज्यादातर पर सन्नाटा पसरा है। और फिर एक ढाबे पर हम रुक जाते हैं। यहां पांच-सात लोगों का ग्रुप खाना खा रहा है। इस दौरान मन में पूर्व के हाईवे पर खाना खाने के दौरान बिल के नाम पर लूट की यादें भी जहन में आ रही हैं।
यहां टेबल पर बैठने के बाद हम सादा खाना ऑर्डर करते हैं। बावर्ची एक दम सीधा-सादा बंदा है। बड़ी ही विनम्रता से बात कर रहा है। खाने का कुछ देर इंतजार के बाद मैं उठकर पता करने जाता रहा हूं कि कितनी देर है। इस दौरान पूछा कि छांछ या दही का कोई प्रबंध है। पहले तो बावर्ची ने मना कर दिया। फिर बोला रुको फ्रिज में देखकर बताता हूं। देख कर कह रहा है वो वाली छांछ तो नहीं है। मैंने कहा कौन सी है तो एक पुरानी पेप्सी की बोतल में भरी छांछ दिखा दी। मैंने कहा घर की है क्या। बोला हां घर वाली ही बची है पैकेट वाली नहीं है। इसके बाद उसने मुझे बोतल थमा दी और कहा कि चेक कर लीजिए। मैंने बोतल को ऊपस से एक घूंट लिया...अहा! मजा आ गया है। यह तो अपने गांव वाली मलाई वाली छांछ है। इसके बाद बोतल में भुना जीरा, काला नमक मिलाकर छांछ हमें दे दी गई। कुछ ही देर में खाना भी टेबल पर आ गया। खाने में ताजा पन है। देसी छांछ ने स्वाद को और बढ़ा दिया।
खाना खाने के बाद छोटा भाई वहीं रुक गया। और हम तीनों ऑफिस सहकर्मचारी वॉलेट निकालते हुए काउंटर पर पहुंच गए। यहां फिर मनुहार का दौर शुरू हो गया। नहीं मैं दूंगा-नहीं आप नहीं मैं दूंगा। और हमें हमारे वरिष्ठ साथी गजानंद जी की बात माननी ही पड़ी। उन्होंने पेमेंट किया। पता है बिल कितना आया... मात्र 290 रुपए। जबकि हमने छांछ और पैक्ड पानी भी लिया था। यहां यह विश्वास भी हुआ कि हाईवे के होटलों और ढाबों की क्षवि खराब जरूर है लेकिन हर कोई लुटेरा नहीं।
इसके बाद हम फिर बाइकों पर सवार होकर चल दिए हैं। रफ़्तार 60-70 की बरकरार है। इसी बीच हम चार बजे अलवर पहुंच गए। इस प्रकार एक दिवसीय इस सुखद यात्रा का अंत हो गया।
सबसे मजे कि बात पता क्या है...। आज शनिवार है यानी कि मेरा वीकली ऑफ और मुझे ऑफिस नहीं जाना है। घर पहुंचते ही जैसे-तैसे कपड़े उतार कर फेंके और बेड पकड़ लिया। और गहरी नींच के आगोश में चला गया...।
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Harshad Mata Temple of Abhaneri Destroyed by Mohammad Gazni


... ओ गजनी! इन कला कृतियों को तोड़कर तुझे क्या मिला बे
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(भाग-3)
राणा सांगा के अदम्य साहस को सलाम कर अब हमें आभानेरी की ओर रुख करना है। दरअसल हम अलवर से निकले ही आभानेरी के लिए हैं। लेकिन रास्ते में एक झरना देखने की चाहत ने यादों की गठरी में कितना कुछ बांध दिया।
खैर हमरी बाइकें मेगा हाईवे की ओर चल दी हैं। हमने फैसला किया है कि अब आभानेरी से पहले नहीं रुकना है। क्योंकि शाम पांच बजे वापस ऑफिस भी पहुंचना है। मेगा हाईवे मिलते ही बाइक महाराणा प्रताप के चेतक की तरह हवा से बात करने लगीं। कुछ देर चलकर अब हम बांदीकुई के नजदीक पहुंच गए हैं। लेकिन यहां असमंजस है। आगे दो रास्ते हैं। एक तो मेगा हाईवे और दूसरा शहर की ओर कटा है। साथी राजकमल हाईवे पार कर आगे का रास्ता पूछ रहे हैं। इसी दौरान एक बाइक सवार को रोककर मैं भी रास्ता पूछ रहा हूं। लेकिन असमंजस अब भी बरकरार है। क्योंकि राजकमल को मेगा हाईवे पर बढ़ने को कहा गया जबकि मुझे बताने वाले ने कहा है कि मेगा हाईवे से जाने पर कोई 5 से 7 किलोमीटर का फेर है। मुझे रास्ता बताने वाले बाइक सवार सज्जन यह कह कर आगे बढ़ गए कि अगर शहर के रास्ते से जाना हो तो उनके पीछे आ जाऊं। हालांकि मेरा मन देख साथी अंदर वाले रास्ते पर ही चल दिए हैं। मैंने बाइक की रफ़्तार बढ़ा कर बाइक वाले सज्जन का साथ पकड़ लिया है। इस रास्ते को चुनने के पीछे मेरा लालच यह था कि इसी बहाने एक झलक बांदीकुई की भी मिल जाएगी। हालांकि रास्ते में पड़ी दो रेलवे क्रासिंग, ट्रैफिक और शहर से निकल कर मिली खराब सड़क के चलते साथी थोड़ा असंतुष्ट हैं और मेरे चेहरे पर हल्का ग्लानि भाव। हालांकि मन में बांदीकुई की झलक पाने की खुशी ही है।
ऊबड़-खाबड़ रास्ते और मिट्टी के टीलों के बीच से होते हुए हम आभानेरी पहुंच गए हैं। इस रास्ते ने हमें ठीक एक बड़े चबूतरे पर बने एक मंदिर के सामने लाकर खड़ा किया है। गौर से देखने पर पता चला कि यह हर्षद माता का मंदिर है। देखने से प्राचीन लग रहा है। अंदर प्रवेश कर लगे बोर्ड को पढ़ने से पता चल रहा है कि महामेरु शैली के इस मंदिर का निर्माण 7वीं-8वीं शताब्दी में आभानगरी के शासक चौहान वंशीय राजा चांद ने कराया था। इस मंदिर की आभा की कीर्ति देश नहीं दूर-दूर तक फैली थी। इसके बाद सीढ़ियों के सहारे हम मंदिर के पहले तल पर पहुंच गए। अपने इर्द-गिर्द शिल्प कला की संपदा का सागर देख अभिभूत हो गया हूं। इस विधा के बारे में कोई जानकारी नहीं होने पर भी इन कला कृतियों को निहारने की ललक है। इनके करीब जाकर देखता हूं। एक को देखा, दो-तीन-चार लगभग सभी। ये क्या...। ये तो सभी किसी न किसी रूप में खंडित प्रतीत हो रही हैं। पहले तल पर मंदिर की पूरी परिक्रमा कर ली। लगभग सभी कृतियों को देख लिया। जिनमें यक्ष-यक्षनियों, नाग-नागिन, प्रेम श्रृंगार, नृत्य, संगीत का आनंद लेते नायक-नायिकाओं सहित धार्मिक व लौकिक कृतियां शामिल हैं। गौर से मंदिर को देखने और आसपास बिखरी खंडित कृतियों को देख मन में मंदिर के साथ पूर्व में किसी प्रकार की बर्बरता किए जाने की आशंका उठ रही है। इसी बीच हम मंदिर में दर्शन के लिए पहुंच गए। यहां बुजुर्ग पुजारी से मैंने पूछ ही लिया कि पुजारीजी, अधिकतर कृतियां खंडित प्रतीत हो रही हैं। क्या ये खंडित की गई हैं। वे मेरी ओर गौर से देखते हैं और भाव शून्य चेहरे के साथ कहते हैं, हां। मैने पूछा किसने किया यह। बोले 10-11वीं शताब्दी में महमूद गजनी ने इस मंदिर को धवस्त करवा दिया था। यहां लगी हर मूर्ति, कलाकृति को खंडित करवा दिया। यह सुनकर मेरा मुख गुस्से से लाल हो रहा है।
मन में चल रहा है कि अगर गजनी को लूटपाट ही करनी थी करता, बहुमूल्य चीजों को साथ ले जाता। लेकिन कलाकरों की वर्षों की मेहनत को इस तरह तबाह कर क्या मिला होगा उसे...। और 600 वर्षों के बाद ऐसी ही बर्बरता कर क्या मिला होगा औरंगजेब को...। हां हमें जरूर कुछ मिला है। नफरत... धार्मिक उन्माद...। जिसकी खाई में देश और हर देशवासी के विकास का एजेंडा लगातार दफन होता आ रहा है। अतीन के इन काले अध्यायों की बदौलत ही आज भी हमारे देश की राजनीति सिर्फ मजहबी तुष्टीकरण तक सिमट कर रह गई है। किसी का भूख से तड़प कर मर जाना आज भी कोई मुद्दा नहीं है।
खैर पुजारी से और बात करने पर वे बताते हैं कि मंदिर को प्राचीन मंदिर के अवशेषों से पुन: बनाया गया है। इसमें लगी प्राचीन मूर्ति भी चोरी हो गई है। मंदिर में लगी हर्षद माता की मूर्ति पुनस्र्थापित की गई है। पुजारीजी से मस्तक पर चंदन का टीका लगवाकर प्रसाद पाकर हम मंदिर से नीचे की ओर चल दिए हैं। लेकिन जैसे ही आसपास बिखरी बर्बरता की कहानी कह रही खंडित प्रतिमाओं पर नजर पड़ी, माथा थोड़ा गर्म हो गया है। जिसे चंदन का टीका भी शीतल नहीं रख पा रहा है।
मंदिर से उतरते ही सामने रास्ता है उस प्राचीन बावड़ी का जो हमें 70 किलोमीटर दूर से खींच लाई है...।
क्रमशः...

Rana Sanga in Baswa


... और राणा सांगा के बारे में सुन दिमाग चकरा गया
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(भाग-2)
बाइक से ऑफिस सहकर्मियों के साथ झाझीरामपुर पहुंच हम झरना न मिलने पर भी मायूस नहीं हैं। क्योंकि जो मिला वह झरने से ज्यादा सुखद लगा। हम चारों लोग अब बसवा के लिए रवाना हो रहे हैं। समय सुबह के 10 के पार है लेकिन मेघों का छाता तना है सो धूप से राहत है। लेकिन मन में यह आशंका भी बलवती है कि गुरु बारिश शुरू हो गई तो सफर थम सकता है। क्योंकि साथ में मोबाइल के अलाव अपना ईएमआई पर लिया कैमरा भी है। उसे किसी कीमत पर भीगने का जोखिम ईएमआई पूरी होने तक तो नहीं ही उठाया जा सकता। वहीं बार-बार मन में सभी को अपनी आभा से प्रभावित कर देने वाली आभानेरी का ख्याल भी आ रहा है। लेकिन ये क्या कुछ दूर और चलते ही धूप निकल आई। लेकिन कोई खास दिक्कत नहीं मन तो महादेव से मिलन के बाद हिम सा शीतल है। 
हमें बताया गया है कि अगर बांदीकुई की ओर जाना है तो बसवा में रेलवे स्टेशन से पहले पड़ने वाले चौराहे से बाई ओर मुड़ना है। आगे रेलवे क्रॉसिंग पार कर हम फिर मेगा हाईवे पर पहुंच जाएंगे। कुछ ही देर में हम बसवा नगर में पहुंच गए। सड़क के दोनों ओर सरकारी, प्राइवेट स्कूल के साथ ही बैंक शाखाएं भी दिखाई दे रही हैं। सड़क की हालत भी ठीक है। पौराणिकता और आधुनिकता का संगम देखकर अच्छा लग रहा है। बाजार को पारकर हम उस चौराहे पर पहुंच गए जहां से मेगा हाईवे के लिए मुड़ना है। यहां साथियों ने रुककर कुछ फल लेने का फैसला किया। लेकिन मेरी नजर फलों पर नहीं चौराहे पर लगी प्रतिमा पर टिकी है। गौर से देखने के बाद पास जाकर देख रहा हूं। काले पत्थर की मूर्ति पर पर गुलाब के फूलों की माला चढ़ी है। मूछे और हाथ में तलवार देखकर लग रहा है कि कोई क्षत्रिय है। मैं शिलालेख ढूढ़ रहा हूं। पूरी परिक्रमा करने पर भी कुछ नहीं मिला है। सिवाय चबूतरे पर पुते स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एंड जयपुर का रास्ता दिखाते सूचक के। लौटकर साथियों के पास आया जो अब तक दर्जन भर केले और कुछ अमरूद खरीद चुके हैं। फल वाले चचा से प्रतिमा के बारे में पूछा तो बोले, प्रतिमा राणा सांगा की। मैं अवाक...। यहां राणा सांगा कहां से आ गए। हालांकि अपन ठहरे मूढ़ राणा सांगा के बारे में कुछ पता हो तो अंदाजा भी लगाएं कि आखिर बसवा में उनकी प्रतिमा क्यों लगवाई गई होगी। हालांकि खोज शुरू कर दी। साथियों से चर्चा करने पर पता चला कि मेवाड़ के शासक राणा सांगा यानी कि महाराजा संग्राम सिंह महाराणा प्रताप के दादा थे। उन्हें साहस और उनकी युद्ध कला के लिए जाना गया। उसके शरीर पर तलवार के एक नहीं पूरे 80 घाव थे। वे एक पैर, एक आंख और एक हाथ से अपाहिज थे। इसके बाद भी उन्होंने कई युद्ध लड़े और विजयी भी रहे। मेरा दिमाग चकरा रहा है, कोई इतना वीर कैसे हो सकता है। आधे शरीर के साथ रणभूमि में जाने के लिए कहां से आता होगा इतना साहस। बात आगे बढ़ती है। हमारे वारिष्ठ साथी गजानंद शर्मा सर बता रहे हैं कि राणा सांगा ने आखिरी युद्ध यहीं आगरा के फतेहपुर सीकरी के करीब खानवा में 1527 में बाबर के साथ लड़ा था। इसमें वे पराजित हुए थे। मोबाइल फोन में गूगल बाबा की मदद से पता चला कि इस पराजय की दो मूल वजह थीं। एक तो उन्हीं का साथी सरदार शिलहादी युद्ध के अहम समय पर अपने 30 हजार सिपाहियों के साथ बाबर के साथ मिल गया। दूसरी, तकनीक में पिछड़ापन। बाबर ने युद्ध में तोपों का इस्तेमाल किया जबकि राणा पारंपरिक भाले और तलवार के साथ मैदान में लोहा ले रहे थे। यहां बताया जाता है कि रणभूमि में राणा लड़ते हुए मूर्छित होकर जमीन पर गिर गए और उनकी सेना को लगा कि उनकी मौत हो गई। इसके बाद सेना के पैर उखड़ गए। राणा को उनके बहनोई आमेर नरेश पृथवी राज वहां से उठा ले गए (संभत: बसवा में ही उन्हें रखा गया)। लेकिन राणा ने स्वस्थ होने पर चित्तौड़ वापस जाने से मना कर दिया। उन्होंने कहा बाबर को बिना पराजित किए वह नहीं लौटेंगे। इसके एक साल के अंदर ही उन्होंने एक और युद्ध की तैयारी की। 1528 में मध्यप्रदेश के चंदेरी में वे मुगलों के खिलाफ युद्ध के लिए पहुंचे। लेकिन यहां आसपास कैंप में ही उनकी मृत्यु हो गई। इतिहाकारों में उनकी मौत को लेकर विरोधाभाश है। किसी का कहना है कि उनकी मौत बीमरी से हुई तो कोई उन्हें जहर दिए जाने की बात कहता है। इसी दौरान फल की ठेल वाले चचा बता रहे हैं कि यहां पास में ही उनका समाधि स्थल भी है। यहां मेरे दिमाग की सुई फिर अटक गई है। अगर एमपी में मौत हुई तो बसवा में अंतिम संस्कार क्यों किया गया। काफी खोजबीन के बाद भी स्थिति स्पष्ट नहीं कर पाया हूं। एक मत यह भी सामने आया कि उनकी मौत बसवा में ही हुई। वे चंदेरी में युद्ध के लिए गए ही नहीं। 
खैर हम इतिहास में न अटक कर वर्तमान में वापसी करते हैं। अब मन में बस राणा की समाधि को छूकर उन्हें महसूस कर लेने की आरजू है। उनकी समाधि स्थल का रास्ता पूछने पर पता चला कि जिस रास्ते से हमें मेगा हाईवे पर पहुंचना है, उसी रास्ते पर रेलेवे क्रॉसिंग के पास ही समाधि बनी है। इस प्रकार फलाहार कर हम आगे बढ़ते हैं। रेलेवे क्रॉसिंग के इर्द-गिर्द देखने पर कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। हम आगे बढ़ते हैं और मेगा हाईवे पर पहुंच जाते हैं। यहां पूछने पर पता चलता है कि हमें क्रॉसिंग से ही बाई ओर रेलवे लाइन के किनारे-किनारे जाना था। लेकिन एक रास्ता और है। मेगा हाईवे पर पुलिस थाने के सामने से बाई ओर सड़क से भी हम समाधि तक पहुंच सकते हैं। हमने आगे बढ़ने का फैसला लिया। थाने के सामने से मुड़कर हम एक बार रास्ते में बैठी काकी से समाधि के बारे में पूछते हैं तो वे कुछ दूरी पर गुजर रही रेलवे लाइन की ओर इशारा करती हैं। सड़क के पास ही अंडरपास का कार्य चल रहा है। हम वहीं बाइक खड़ी कर समाधि की तलाश में निकल पड़ते हैं। रेलवे लाइन के साथ कुछ दूर चलने पर एक चबूतरा दिखाई देता है। करीब पहुंचने और उस पर लिखे से पता चलता है कि यही है राणा सांगा का चबूतरा यानी की समाधि। यहीं एक वीर योद्धा प्रकृति के पंच तत्वों में विलीन हुआ होगा। जिस राणा सांगा के बारे में कल तक मैं निल बटे सन्नाटा था आज उसके इतने पास होकर सुखद अनुभूति हो रही है। आभानेरी की आभा देखने निकला था लेकिन अब राणा के सौर्य की आभा से आंखें चौंधिया रही हैं। जहन में बार-बार उनकी विशाल आकृति बन रही है। मन में एक ही ख्याल कि जिस्म पर 80 घाव, एक हाथ, एक पैर और एक आंख का अभाव। अंदर से कितना मजबूत रहें होंगे सांगा। यह माटी के प्रति उनका प्रेम और समर्पण ही होगा जो उनकी रगों में साहस का संचार करता होगा। उनकी वीरता को नमन करता हूं। लेकिन यहां उनके समाधि स्थल की बदहाली देखकर मन व्यथित भी है। एक ओर मुगलों ने आगरा में अपने घोड़ों तक की इतनी भव्य समाधि बना दीं, दूसरी ओर आजादी के बाद भी राणा सांगा की ऐसी अनदेखी...। व्यथित मन लेकर हम यहां से निकल रहे हैं। 
अब तैयारी आभानेरी की है। वही आभानेरी जहां एक हजार साल से भी पुरानी 3500 सीढ़ियों वाली बावड़ी (कुआं) है।
क्रमश...

Rana Sanga Via Jhanjhirampur

और जिस्म पर 80 घाव लिए राणा सांगा मिल गए...
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हुआ यूं कि शुक्रवार शाम को ऑफिस सहकर्मियों के साथ आभानेरी जाने का प्लान बन गया। आभानेरी यानी कि आभानगरी। यह नगर राजस्थान के दौरा जिले में बसा है। हमारे अलवर से कोई 70 किलोमीटर की दूरी पर। योजना के तहत शनिवार सुबह छह बजे निकलना था। पत्रिकारिता पेशे में रात में काम करने वालों को घूमने की एक ही कीमत चुकानी होती है। नींद की कुर्बानी। रात में एक-दो-तीन बजे तक काम करो और सुबह बिना सोए ही घूमने कट लो। क्योंकि हमारा कोई सामूहिक साप्ताहिक अवकाश नहीं होता। जिंदगी में सनडे के कोई मायने नहीं हैं। इसलिए अगर एक साथ जाना है तो नींद को टाटा कहो और घूमकर शाम तक वापसी कर ऑफिस में हाजिर हो जाओ।
शुक्रवार रात ऑफिस से लौटकर सुबह साढ़े पांच का अलार्म लगाया लेकिन इतनी गहरी नींद आई की अलार्म का पता ही नहीं चला। जैसे तैसे छह बजे नींच खुली। सिर भयानक भारी और आंखों में जलन। देखा तो फोन में किसी साथी की मिस्ड कॉल भी नहीं। समझ गया कि वे भी जागे नहीं हैं। उन्हें फोन लगाया नहीं उठा। दो-तीन बार और लगाया नहीं उठा। इसके बाद छोटे भाई को जगाया। और हम तैयार हो गए। सात बजे के करीब फिर फोन किया तो साथी राजकमल ने फोन पिक किया। मैंने उन्हें फटाफट तैयार होने को कहा। इस तरह हम आठ बजे शहर से निकल पाए।
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प्रकृति कर रही जहां हमारे लिए हलाहल पीने वाले का अभिषेक...
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आभानेरी के सफर में हमने पहला पड़ाव झाझीरामपुर तय किया है। हमें बताया गया है कि यहां एक खूबसूरत झरना है। यह स्थान अलवर से करीब 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसके लिए अलवर-जयपुर मेगा हाईवे को छोड़कर बसवा होकर जाना है (रेल मार्ग पर बसवा स्टेशन अलवर और बांदीकुई के बीच मेें पड़ता है)। रास्ते में एक जगह ठहर कर हमने चाय की चुस्कियां ली। ढाबे पर मौजूद लोगों से झाझीरामपुर का रास्ता समझा और हम फिर चल दिए। मेगा हाईवे पर रफ्तार की आजादी के चलते बसवा के लिए हमें जहां मुड़ना था हम उससे कुछ किलोमीटर आगे निकल गए। फिर एक सज्जन से पूछा तो उन्होंने उसी स्थान से बाई ओर एक पगडंडी की ओर इशारा कर दिया। कहा, इससे भी हम बसवा पहुंच सकते हैं। फिर क्या मेगा हाईवे पर 70 की स्पीट से दौड़ रही बाइकें पगडंडियों पर हिचकोले खाने का लुत्फ लेने लगी। कुछ ही देर में हम बसवा रेलवे स्टेशन के करीब पहुंच गए। नियम का उल्लंघन कर औरों को देख हमने भी फाटक के नीचे से अपनी बाइके निकाली (हालांकि हमने देख लिया था कि समीप में रेलकर्मी ट्रैक पर वेल्डिंग का काम कर रहे थे, मतलब ट्रेन आने में अभी देरी है) और स्टेशन के करीब से होकर बसवा नगर में प्रवेश कर गए। 
यहाँ एक बार और रास्ता पूछा और हम झाझीरामपुर की तरफ बढ़ने लगे। न जाने क्यों मुझे बसवा में भी ब्रज के नगरों जैसा अहसास हो रहा है। वैसे ही सकरी गलियां। वैसी ही घरों से उठती धूप, कपूर और पुष्पों की सुगंध। कुल मिलाकर मुझे यहां श्याम सलोने की मौजूदगी का अहसास हो रहा है। हालांकि इसके बारे में पता भी नहीं किया कि बसवा कन्हैया से कोई संबंध रखता भी है या नहीं। वैसे राजस्थान के दौसा, भरतपुर, धौलपुर, अलवर जिलों में किसी न किसी रूप में ब्रज व्याप्त है। कभी पहनावे में, कभी बोली में तो कभी भोजन के रूप में। 
बसवा बिना रुके हम झाझीरामपुर की ओर बढ़ते हैं।
रास्ता घेरकर चल रही बकरियों के झुंडों को हॉर्न देते हुए आधे घंटे के अंदर ही हम झाझीरामपुर पहुंच गए। अरावली पर्वत श्रृंखला से घिरा सुंदर गांव है झाझीरामपुर। यहां प्राचीन 11 रुद्र महादेव मंदिर और संकट मोचन हनुमान मंदिर है। और यहीं पक्की सड़क भी समाप्त हो गई। लेकिन हम मंदिरों को पारकर आगे बढ़ने लगे। क्योंकि हम तो झरने की तलाश में आए हैं। ऊबड़-खाबड़ रास्ता शुरू होने से पहले ही पूछने पर पता चला कि यहां कोई झरना है ही नहीं। हम अवाक। झरना नहीं है मतलब, हमें तो बताया गया कि यहां झरना है। इस पर बुजुर्ग ने स्थानीय भाषा में कहा कि देख भाई अगर मुझे परेशान करना होता तो मैं आगे जाने को कह देता लेकिन मैं झूठ क्यों कहूं। फिर एक युवक ने बताया कि झरना तो नहीं यहां प्राचीन रुद्र महादेव मंदिर में एक कुंड है। जिसमें बारहों महीने प्राकृतिक श्रोत से पानी आता है। इसके बाद कौतूहल और आस्था का संगम लिए हम मंदिर की ओर बढ़े। कुंड के बारे में बताने वाले युवक ने मंदिर जाने का इतनी बार आग्रह किया कि हमें लगा कि यह पूजा-पाठ के लिए दबाव बनाकर रुपए ऐठने की फिराक में है। लेकिन मंदिर में प्रवेश के साथ ही हम गलत साबित हो गए। इस प्राचीन मंदिर में ऐसा कोई आडंबर था ही नहीं। युवक भी अंदर नहीं आया। 
महादेव का यह प्राचीन मंदिर इतना भव्य तो नहीं है लेकिन सादेपन से महक रहा है। मंदिर के अंदर मध्य में भगवान शिव, मां पार्वती के साथ विराजमान हैं और इर्द-गिर्द 10 शिव लिंग स्थापित हैं। इन सभी का प्राकृति अनवरत रूप से जलाभिषेक कर रही है। अपने आप में अद्भुत है यह मंदिर। बगल में ही कुंड है। जिसमें गौमुख से जल धारा बह रही है। जल के इस श्रोत को देखते हुए मन में एक ही खयाल आया है कि राजस्थान को आज भी 80 फीसदी देशवासी सिर्फ रेगिस्तान के रूप में ही जानते हैं। उन्हे फिल्मों आदि के माध्यम से आखिर दिखाया भी तो इतना ही गया है। जबकि भारत का यह राज्य विवधता की खान है। यहां रेगिस्तान ही नहीं पहाड़, झरने, झील से लेकर बर्फबारी तक का लुत्फ उठाया जा सकता है। 
हम कुछ समय वहां बिताने के बाद बगल के संकट मोचन हनुमान मंदिर में दर्शन के लिए चले आए। दर्शन कर प्रसाद ग्रहण करने के बाद हम आभानेरी की ओर रुख करने के लिए तैयार हो गए हैं। इसके लिए हमें वापस फिर बसवा जाना है... 
क्रमश... 
यहीं होगा सांगा से सामना...।

Ramleela

आसमान से मेढक़ों का बरसना और रामलीला
बचपन के दिनों की याद करता हूं। तो याद आता है पहली दूसरी कक्षा का दौर। बारिश के वे दिन जब रास्ते मेढक़ों के नन्हें टोड्स से पट जाते थे। और हरदोई शहर के नुमाइश मैदान से सटे सुभाष नगर के रास्ते पर चलना दूभर हो जाता था। तमाम प्रयास के बाद भी एक आध मेढक़ जूते के नीचे आ ही जाता और पट से आवाज आती। ठीक वैसी आवाज जैसी बबल पैकिंग को फोडऩे पर आती है। इसके बाद मन दुखी हो जाता। कभी इतनी हिम्मत नहीं जुटा सका कि पैर के नीचे आकर कुचले मेढक़ को पैर उठाकर देख सकूं। उस समय मन में यही सवाल रहता था कि इतने मेढक़ बारिश में आते कहां से हैं। साथियों से भी इस पर लंबी चर्चा होती थी और हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते थे कि बीती रात मेढक़ों की बारिश हुई होगी। लॉजिक होता था कि जैसे आसमान से बर्फ वाले ओले गिरते हैं। ऐसे ही रात की बारिश में बेढक़ भी गिरे होंगे। लेकिन मेरे में मन में यह शंका रहती थी कि अगर मेढक़ रात में आसमान से बरसे तो सुबह छत पर एक भी मिला क्यों नहीं। मैने तीसरी मंजिल पर तो कभी एक भी मेढक़ नहीं देखा। हालांकि इसको लेकर दोस्तोंं से कभी बहस नहीं की। बहस करना आज भी पसंद नहीं है। बस किसी मुद्दे पर अपनी राय देने तक ही उचित लगता है। खासतौर से जब सामने वाले का उद्देश्य सिर्फ बौद्धिक मनोरंजन तक सीमित हो। 
इसी दौर में नुमाइश मैदान में बने एक अंडरग्राउंड कमरे में झाकने की ललक रहती थी। क्योंकि रामलीला के दौरान इसी कमरे में कलाकार मेकअप वगैरह करते थे। मन में रहता था कि आखिर अंदर से यह कमरा कैसा दिखता होगा। लेकिन कभी घुप्प अंधेरे से भरे इस कमरे में उतरने की हिम्मत नहीं हुई। इसी के ठीक ऊपर एक बड़ा सा चबूतरा था। जिस पर रामलीला का मंचन होता था। यहां बता दूं कि हरदोई में दहशहरा की जगह रामलीला के समापन पर रावण के पुतला के दहन की परंपरा है। यहां जनवरी के अंतिम सप्ताह में रामलीला का शुभारम्भ होता था। इसी के साथ नुमाइश मैदान पर नुमाइश (शहरी मेला) भी सजने लगती थी। उन दिनों रामलीला देखने में कोई रुचि नहीं थी। हमारे लिए तो आकर्षण नुमाइश ही होती थी। जिसमें सॉफ्टी (कोन वाली आइसक्रीम) की स्टाल लगती थी। जो सिर्फ नुमाइश में ही खाने को मिलती थी। शहर में उन दिनों सॉफ्टी की कोई दुकान नहीं थी। लेकिन कभी भटकते हुए रामलीला के मंच की आरे पहुंच जाता तो आश्चर्य में पड़ जाता। रामलीला देखने आए लोग राम आदि का किरदार निभाने वाले युवकों के पांव छूते थे। जैसे वो भगवान हों। मैं सोचता था कि यह कोई युवक है भगवान थोड़ी है। लोगों को इतना भी नहीं पता। उसके बाद उम्र के साथ उस रामलीला के मंच से दूरी बढ़ती गई। नुमाइश आज भी लगती है। लेकिन जब कभी जाना होता है तो बचपन के दोस्तों के साथ सिर्फ सॉफ्टी खाने जाता हूं। 2011 में जब आगरा में अमर उजाला ज्वाइन किया, उसके कुछ समय बाद साथियों के साथ राम बारात में जाना हुआ। आगरा में रामबारात का काफी भव्य आयोजन होता है। बारात में हाथी आदि भी शामिल किए जाते हैं। हालांकि मुझे वहां भी कुछ ऐसा नहीं दिखा जो इस विधा की ओर आकर्षित कर पाता। पहले साल के बाद तीन साल और आगरा में रहना हुआ लेकिन दोबारा राम बारात में शामिल होने नहीं गया। 
जैसा कि अब अलवर में राजस्थान पत्रिका अखबार में कार्यरत हूं, कुछ दिन पूर्व दो एसाइनमेंट मिले। विश्व पर्यटन दिवस व राजर्षि अभय समाज की रामलीला पर विशेष पेज देना। पहला विषय अपने मिजाज का था। जब काम अपने मिजाज का मिल जाए तो वो काम नहीं रह जाता और उसे करने में अंतर्मन से ऊर्जा अलग मिलती है। दूसरे के बारे में सोचकर शुरू से मन खिन्न था। यार... रामलीला पर एक पेज। कंन्टेंट क्या देंगे। अगर समाज ने सौ साल पूरे कर लिए तो इसमें क्या है। विश्व पर्यटन दिवस पर 27 सितम्बर को पेज देने के बाद दो दिन का समय था। इसमें भी शाम पांच से रात एक-डेढ़ बजे तक एडिटिंग का कार्य करना फिक्स है। बाकी बचे टाइम में ही सोना, खाना, रिपोर्ट लेकर आना और उसे लिखना था। एक बार को तो मैंने और साथी राजकमल ने तय किया कि मना कर देते हैं। रामलीला पर एक पेज देना संभव नहीं है। 
हालांकि अधूरे मन से ही हमने 27 सितम्बर को दोपहर दो बजे का राजर्षि अभय समाज से टाइम लिया। सवा दो बजे तक मैं साथी Rajkamal Vyas व वरिष्ठ साथी Gajanand Sharma समाज के कार्यालय पहुंच गए। यहां हमारी रिपोर्टिंग टीम की साथी ज्योतीजी ने हमारा परिचय कराया। अब हमारे साथ समाज के पांच पदाधिकारी बैठे हैं। एयरफोर्स वाले खत्रीजी को छोडक़र सभी के बालों पर चांदी चढ़ चुकी है। दरअसल खत्रीजी ने डाई की हुई है। शुरुआत औपचारिक बातों से हुई, समाज की स्थापना कब हुई, किसने की। जब उनसे पूछ कि आपने कौन-कौन सी भूमिका निभाई हैं, तो उनमें आपस में बच्चों सी होड़ लग गई। शर्माजी बोले एक और नोट करो ताडक़ा भी बना था एक बार, तभी खत्रीजी बोल पड़े विक्रम बेताल में बेताल भी तो बना था मैं उसे भी नोट कर लें। इसके बाद एक दूसरे को उनकी निभाई भूमिकाओं को याद दिलाने लगे। अस्सी की दहलीज पर खड़े इन बुजुर्गों के चेहरों पर अतीत में जाकर आनोखी चमक आ गई। इन्होंने अपने साथी कलाकारों के त्याग और समर्पण की ऐसी दासतां भी सुनाईं, जिन्हें सुन हमारी आंखों में भी नमी आ गई। इनके एक साथी जो न्यायिक सेवा में बड़े अधिकारी थे भर्तृहरि नाटक का मंचन कर रहे थे। इसी दौरान घर से सूचना आई कि उनके पिताजी नहीं रहे। उन्हें जानकारी दी गई लेकिन उन्होंने मंच छोडऩे से इंकार कर दिया। उन्होंने कहा कि पुत्र धर्म से बड़ा, इस समय मंचन का कर्म है। वहीं एक संगीत कलाकार की जीवनसंगिनी के नहीं रहने की सूचना आई तो वह भी मंच छोडक़र नहीं गए। अंत तक गायन और संगीत से श्रोताओं को अभिभूत करते रहे। यह है मंच के प्रति समर्पण। 
हम जितने से भी पदाधिकारियों से बात कर रहे हैं, सभी सरकारी सेवाओं में ऊंचे पदों से रिटायर्ड हैं और इस उम्र में भी मंच पर सक्रिय हैं। वहीं यहां उन लोगों से भी मिलना हुआ जो दिनभर दफ्तर में काम करने के बाद देर रात तक रामलीला का मंच करते हैं तो कुछ लोग छुट्टियों को घूमने की जगह रामलीला के लिए रिजर्व रखते हैं। क्या मिलता है इन्हें इस मंच से...दौलत-नहीं, शोहरत-नहीं। फिर क्यों आते हैं। यह भगवान राम के प्रति इनकी आस्था और मंच के प्रति समर्पण का भाव ही है। यहां सबकुछ कितना मर्यादित रूप से करते हैं यह लोग। जो युवक कुछ देर पहले तक सुभाष होता है, वही किरीट मुकुट पहतनते ही भगवान राम हो जाता है। इसके बाद कोई डायरेक्टर कोई पदाधिकारी वहां उससे बड़ा नहीं हैं। अब सब उसके पांव छुएंगे। अब कोई उसे भूल से भी हासपरिहास नहीं कर सकता। मंच की मर्यादा को लेकर इतनी सजगता की पूछे नहीं। 
ऐसा नहीं कि यह मर्यादाएं मंच तक सीमित हैं। ये कलाकार अपने जीवन और परिवार में भी इसके बीज बो रहे हैं। यह अहसास उस समय हुआ जब समाज के महामंत्री महेश शर्मा अपने एक पौत्र को स्कूल से लेकर दफ्तर पहुंचे। नन्हा सा बालक चेहरे पर प्यारी मुस्कान लिए एक तरफ से सभी के पैर छू गया। उसे यह जानने की जरूरत नहीं थी की कौन किस जाति या धर्म का है। उसके लिए तो बड़ों का आशीर्वाद ही ध्येय था। वह रामलीला के दौरान राम के बाल स्वरूप में भी भूमिका निभाता है।
सभी बुजुर्गों के खुशी से चमकते चेहरे किस कदर मुझमें ऊर्जा का संचार कर रहे थे। बयां करना मुश्किल है। मंच के प्रति उनके समर्पण ने अब हमारे अंदर उनके प्रति सम्मान को गई गुना बढ़ा दिया। मंच के प्रति उनमें असीम आदर है। आज मेरा भी मन पांव छूने का है। आगे मौका मिलेगा तो छुऊंगा भी। राम ही नहीं रावण के भी छुऊंगा। उनके कदमों पर झुकने का ध्येय उनके इस त्याग और समर्पण को नमन करना होगा, उनके संस्कृति को बचाने के प्रयास को नमन करना होगा।
सच में नाटकों में लगे रंगीन पर्दों के पीछे श्वेत-श्याम जिंदगी का किनता, त्याग, कितनी तपस्या, कितना समर्पण अनदेखा रह जाता है। 
कल शाम को ऑफिस में जब साथी राजकमल कन्टेंट तैयार करने बैठे तो मैं उन्हें बार-बार टोक रहा था। यार कितना लिखोगे। मैं अपना कन्टेंट पहले ही दे चुका था। कई बार टोका मगर वे लिखे जा रहे थे। अंत में जब उनसे शब्द संख्या चेक करने को कहा तो पाया कि वे 10 हजार शब्द टाइप कर चुके थे। अभी कई बिंदु लिखने को शेष थे। जबकि एक फुल पेज देने के लिए अगर फोटो हैं तो 2 से ढाई हजार शब्द पर्याप्त होते हैं। अब हम अपनी उस बात पर हंस रहे थे कि 'एक पेज का कन्टेंट कहां से लाएंगे'। वहीं माथा पीट रहे थे कि अब इसमें से क्या हटाएंगे। 
अंत में एक बात जरूर कहूंगा कि वाकई रामलीला हमारी बहुमूल्य निधि है। अगर आप चाहते हैं कि आपका बेटा राम की तरह आपके विचारों और आदेशों का सम्मन करे। अपके बेटों में राम के चारों भाइयों जैसा प्रेम और त्याग की भावना हो तो उन्हें रामलीला के मंच के करीब ले जाएं। उन्हें दिखाएं कि राम होने के अर्थ क्या हैं। यह सच है कि आज जिस आधुनिकता की ओर हम बढ़ रहे हैं, वहां हमारी संस्कृति की महत्ता गौण हो रही है। लेकिन एक बात हमें समझनी होगी कि संस्कार ही हमारी जड़ें हैं। सब कुछ अपनाएं लेकिन उनके पोषण का ख्याल रखना न भूलें। क्योंकि अगर जड़ें मरीं तो खूरबसूरत पत्ते, फल और फूल से ख्याति अर्जित कर रहा पेड़ सूखने से बच नहीं पाएगा।