रविवार, 16 अक्तूबर 2016

... और ज़िंदगी भर 'काश' आपको कुरेदेगा

समय के साथ समाचार की दुनिया में जो बदलाव आया है। वह सच में भयावह है। सूचना के नाम पर हमें अधिकांशतः निराशा और नाकारात्मकता परोसी जा रही है। थोड़ा बहुत जो सकारात्मक है, वह भी नाकारात्कता की अधिकता के चलते गौड़ हो रहा है। खैर इस विषय पर बात करने का मूड नहीं है। और बात करने का फिलहाल कोई लाभ भी नहीं। मैं तो बेचैन हूं, राजस्थान के एक छोटे से कस्बे शाहजहांपुर की कोमल के दुनिया को अल्विदा कहे जाने से। उसने नवीं कक्षा में दूसरी बार फेल होने पर मौत को चुन लिया (ऐसा कहा गया)।
जब भी किसी मासूम का शिक्षा के बोझ तले दबने से दम घुटता है, मैं बहुत बेचैन होता हूं। जिस शिक्षा का उद्देश्य जीने की ललक बढ़ाना है तो आखिर उसका यह कौन सा रूप है जो किसी को मौत क़ी ओर ढकेल देता है। एक परीक्षा में असफल होना कैसे जिंदगी के उद्देष्य का असफल होना साबित हो जाता है। कहीं तो कमी है...। जिंदगी सिर्फ वह नासमझ नहीं हारता। यह हमारी व्यवस्था की हार होती है. उसका जाना हर बार इस व्यवस्था पर एक बड़ा प्रश्न चिह्न होता है. और फिर शिक्षा का जो मौजूदा स्वरूप आज हमारे सामने है, वह हमारी ही उपज है। जिसे इस दुनिया में आई मासूम कोमल पर हमने लागू कर दिया था।
काश! समय रहते हम इस गुड़िया को शिक्षा के सच्चे स्वरूप से रूबरू करा पाते। काश! हम उसे दुलार कर समझा पाते कि कोमल, यह परीक्षा पैमाना नहीं है तुम्हारी क्षमताओं के आकलन का...। यह एक रेस नहीं जीत पाई तो क्या तुम्हें तो पंखों से उड़ान भरनी है। सपनों की उड़ान... और उसके लिए यह गणित, विज्ञान और अंग्रेजी में दक्ष होना कोई अनिवार्यता नहीं।
लेकिन यह काश... शब्द। हार के बाद की थकान सा लगता है। जो एक लंबी सांस ले लेने को विवश कर देता है। आगामी समय हमारे मासूमों की क्षमता का आकलन करने को स्थापित किए गये इम्तिहानों के इन्हीं झूठे और जुल्मी परिणामों का है। आप सभी अपने इर्द-गिर्द नजर रखें। हो सकता है किसी कोमल या कार्तिक के कांधे पर आपके द्वारा रखा गया दुलार भरा हाथ उसको जिंदगी की जंग हारने से बचा ले। नही तो आपके पास भी सिर्फ काश ही बचेगा... जो जिंदगी भर आपके साथ जिंदा रहकर आपको अंदर से कुरेदता रहेगा कि काश...!


(*Parts of artwork have been borrowed from the internet, with due thanks to the owner of the photograph/art)

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