‘... मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में मां आई’... क्या मुनव्वर राना को जानते हैं आप ?
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(आखों देखा मुनव्वर-1)
जरूरी नहीं की हर शख्स को जाना जाए। लेकिन कुछ लोगों को जानना उस समय जरूरी हो जाता है, जब वे आपकी जरूरत बन गए हों। दरअलस, मैं 2007 में जब घर और मां से दूर हुआ तो मुनव्वर साहब मेरी जरूरत बन गए। अपनी मां और माटी के प्रति उनकी बेइंतहा मोहब्बत ने ही मुझे उनके करीब लाकर खड़ा किया। फिर उनको जितना सुनता और पढ़ता गया उनके और करीब आता गया।
बता दूं कि सैयद मुनव्वर अली उर्फ मुनव्वर राना का जन्म 26 नवम्बर 1952 में यूपी के सई नदी के किनारे बसे रायबरेली में हुआ। बंटवारे के कुछ साल बाद उनका 90 फीसदी परिवार पाकिस्तान चला गया। जिसमें मुनव्वर के दादा-दादी भी शामिल थे, जो मुनव्वर को बहुत प्यार करते थे। इसके बाद मुनव्वर के पिता कलकत्ता आ गए और ट्रांसपोर्ट का काम करने लगे। मुनव्वर की परवरिश कलकत्ता में हुई। यहां उन्होंने बीकॉम तक की पढ़ाई की और पिता के ट्रांसपोर्ट के काम में हाथ बंटाया। यहीं इन्होंने शायरी लिखना शुरू कर दिया। लेकिन कलकत्ता की संस्कृति में शेयरों-शायरी को निम्न माना जाता था। वहीं एक बार लखनऊ में मुनव्वर अपने उस्ताद वाली आसी साहब से रंविद्रालय में आयोजित मुशायरे के पास मांगने गए। वाली आसी ने कहा कि पास तो मिल जाएंगे लेकिन एक शर्त है। तुम्हें भी मुशायरे में शायरी करनी होगी। फिर क्या मुनव्वर को तो पास चाहिए ही थे। यहीं से उनके शेयरों-शायरी का सफर शुरू हो गया। (मैंने जो उनके बारे में पढ़ा)।
आज मुनव्वर साहब दुनिया भर में गजल और शायरी के दीवानों के दिलों पर राज कर रहे हैं। उनको महबूब और महबूबा की मोहब्बत की पर्याय बनी गजल और शायरी को मां की मैली ओढऩी ओढ़ाकर उसे संजीदगी और पाकीजगी अता करने वाले अजीम शायर के रूप में जाना जाता है। वे महज वाह, वाह! तक सीमित गजल को सुनने वाले का गला रुंधने और आंखें छलछला उठने तक ले गए। उन्होंने हर इंसान के अंदर मां के प्रति मौजूद मोहब्बत के दरिया को आंखों के सहारे बहकर बाहर आने का रास्ता दिखाया। आप यहां उनकी कुछ शायरी पढ़ लें...।
कुछ इस तरह मेरे गुनाहों को धो देती है
मां जब बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है।
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आए अंधेरे देख ले मुंह तेरा काला हो गया
मां ने आंखें खोल दीं घर में उजाला हो गया।
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हमारे कुछ गुनाहों की सजा भी साथ चलती है
हम अब तनहा नहीं चलते दवा भी साथ चलती है
अभी जिंदा है मां मेरी मुझे कुछ नहीं होगा
मैं घर से जब निकलता हूं दुआ भी साथ चलती है।
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उन घरों में जहां मिट्टी के घड़े होते हैं
कद के छोटे हों मगर लोग बड़े होते हैं।
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...गजल तो फूल से बच्चों की मीठी मुस्कुराहट है
गजल के साथ इतनी रुस्तमी अच्छी नहीं होती
मुनव्वर मां के आगे यूं कभी खुलकर नहीं रोना
जहां बुनियाद हो वहां नमी अच्छी नहीं होती।
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... खाने की चीजें मां ने जो भेजी हैं गांव से
बासी भी हो गईं हैं तो लज्जत वही रही।
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मेरी ख्वाहिश है कि फिर से मैं फरिश्ता हो जाऊं
मां से इस तरह लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊं।
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जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
मां दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है...
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लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती
बस एक मां है जो मुझसे खफा नहीं होती।
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किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में मां आई।
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ये ऐसा कर्ज है जो मैं अदा कर नहीं सकता
मैं जब तक घर न लौटूं मेरी मां सजदे में रहती है।
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क्रमश:
आंखों देखा मुनव्वर...।
(*Parts of artwork have been borrowed from the internet, with due thanks to the owner of the photograph/art)
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(आखों देखा मुनव्वर-1)
जरूरी नहीं की हर शख्स को जाना जाए। लेकिन कुछ लोगों को जानना उस समय जरूरी हो जाता है, जब वे आपकी जरूरत बन गए हों। दरअलस, मैं 2007 में जब घर और मां से दूर हुआ तो मुनव्वर साहब मेरी जरूरत बन गए। अपनी मां और माटी के प्रति उनकी बेइंतहा मोहब्बत ने ही मुझे उनके करीब लाकर खड़ा किया। फिर उनको जितना सुनता और पढ़ता गया उनके और करीब आता गया।
बता दूं कि सैयद मुनव्वर अली उर्फ मुनव्वर राना का जन्म 26 नवम्बर 1952 में यूपी के सई नदी के किनारे बसे रायबरेली में हुआ। बंटवारे के कुछ साल बाद उनका 90 फीसदी परिवार पाकिस्तान चला गया। जिसमें मुनव्वर के दादा-दादी भी शामिल थे, जो मुनव्वर को बहुत प्यार करते थे। इसके बाद मुनव्वर के पिता कलकत्ता आ गए और ट्रांसपोर्ट का काम करने लगे। मुनव्वर की परवरिश कलकत्ता में हुई। यहां उन्होंने बीकॉम तक की पढ़ाई की और पिता के ट्रांसपोर्ट के काम में हाथ बंटाया। यहीं इन्होंने शायरी लिखना शुरू कर दिया। लेकिन कलकत्ता की संस्कृति में शेयरों-शायरी को निम्न माना जाता था। वहीं एक बार लखनऊ में मुनव्वर अपने उस्ताद वाली आसी साहब से रंविद्रालय में आयोजित मुशायरे के पास मांगने गए। वाली आसी ने कहा कि पास तो मिल जाएंगे लेकिन एक शर्त है। तुम्हें भी मुशायरे में शायरी करनी होगी। फिर क्या मुनव्वर को तो पास चाहिए ही थे। यहीं से उनके शेयरों-शायरी का सफर शुरू हो गया। (मैंने जो उनके बारे में पढ़ा)।
आज मुनव्वर साहब दुनिया भर में गजल और शायरी के दीवानों के दिलों पर राज कर रहे हैं। उनको महबूब और महबूबा की मोहब्बत की पर्याय बनी गजल और शायरी को मां की मैली ओढऩी ओढ़ाकर उसे संजीदगी और पाकीजगी अता करने वाले अजीम शायर के रूप में जाना जाता है। वे महज वाह, वाह! तक सीमित गजल को सुनने वाले का गला रुंधने और आंखें छलछला उठने तक ले गए। उन्होंने हर इंसान के अंदर मां के प्रति मौजूद मोहब्बत के दरिया को आंखों के सहारे बहकर बाहर आने का रास्ता दिखाया। आप यहां उनकी कुछ शायरी पढ़ लें...।
कुछ इस तरह मेरे गुनाहों को धो देती है
मां जब बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है।
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आए अंधेरे देख ले मुंह तेरा काला हो गया
मां ने आंखें खोल दीं घर में उजाला हो गया।
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हमारे कुछ गुनाहों की सजा भी साथ चलती है
हम अब तनहा नहीं चलते दवा भी साथ चलती है
अभी जिंदा है मां मेरी मुझे कुछ नहीं होगा
मैं घर से जब निकलता हूं दुआ भी साथ चलती है।
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उन घरों में जहां मिट्टी के घड़े होते हैं
कद के छोटे हों मगर लोग बड़े होते हैं।
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...गजल तो फूल से बच्चों की मीठी मुस्कुराहट है
गजल के साथ इतनी रुस्तमी अच्छी नहीं होती
मुनव्वर मां के आगे यूं कभी खुलकर नहीं रोना
जहां बुनियाद हो वहां नमी अच्छी नहीं होती।
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... खाने की चीजें मां ने जो भेजी हैं गांव से
बासी भी हो गईं हैं तो लज्जत वही रही।
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मेरी ख्वाहिश है कि फिर से मैं फरिश्ता हो जाऊं
मां से इस तरह लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊं।
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जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
मां दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है...
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लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती
बस एक मां है जो मुझसे खफा नहीं होती।
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किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में मां आई।
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ये ऐसा कर्ज है जो मैं अदा कर नहीं सकता
मैं जब तक घर न लौटूं मेरी मां सजदे में रहती है।
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क्रमश:
आंखों देखा मुनव्वर...।
(*Parts of artwork have been borrowed from the internet, with due thanks to the owner of the photograph/art)
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