शनिवार, 15 अक्तूबर 2016

Chand Bawari of Abhaneri

... और चांद सी बावड़ी की एक झलक पाने को बावले से हो गए
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समय दोपहर के बारह के करीब है और सूरज अपने शबाब पर है। हर्षद माता के मंदिर के दर्शन कर हम चांद बावड़ी को निहारने के लिए आगे बढ़ रहे हैं। बाइकें हमने मंदिर के सामने ही छोड़ दी हैं। क्योंकि यहां से बावड़ी का रास्ता चंद कदमों का ही है। बावड़ी परिसर के प्रवेश द्वार पर ही एक छोटा मंदिर है। किसका है, यह गौर नहीं किया। वजह, हम बावड़ी की एक झलक पाने को बावले हो रहे हैं। और आखिर अलवर से 70 किलोमीटर दूर इस बावड़ी के लिए ही तो खिंचे आए हैं। कुछ ही क्षणों में हम उत्तर दिशा में स्थित बावड़ी के मुख्य प्रवेश द्वार पर पहुंच गए। यह कोई खास अकर्षक नहीं लगा। एक बार को तो यह भ्रम भी हुआ कि यहीं से प्रवेश करना है या आगे से कोई द्वार है। लेकिन हमें यहीं से प्रवेश करना है। इसके बाहर ही लगे शिलापट के अनुसार 100 फीट गहरी चांद बावड़ी का निर्माण 9वीं शताब्दी में निकुभ राजवंश के राजा चांद ने करवाया था। वे 8वीं-9वीं शताब्दी में आभानगरी के शासक थे। बावड़ी के निर्माण का मुख्य उद्देश्य नगरवासियों की पानी की समस्या का व्यावहारिक समाधान करना था। इस बावड़ी में वर्षा जल को संग्रहीत किया जाता था, जिससे पूरे साल इसमें पानी उपलब्ध रहता था।
जानकारी प्राप्त कर हम अंदर घुस गए। सामने बैठे पुरातत्व विभाग के कर्मचारी बाई ओर जाने का इशारा करते हैं। यहां एक आश्चर्य यह भी हो रहा है कि इसका कोई प्रवेश शुल्क ही नहीं है।
साथी वहीं रुक जाते हैं जबकि मेरे कदम तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। और कुछ आगे बढ़ने के बाद ही कदम ठिठक गए...। क्योंकि सामने है स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना चांद बावड़ी। मैं तो बस इसकी सीढ़ियों को निहारे जा रहा हूं। इन सीढ़ियों में खोए हुए मन में ख्याल आ रहा है कि एक कुएं को भी इतना भव्य रूप दिया जा सकता है। एक हजार साल से भी पुरानी इस बावड़ी की कितनी सुंदर डिजाइन तैयार की गई। बावड़ी के तीन ओर 3500 सीढ़ियाँ बनाई गई हैं। इन्हें निहारने के अलौकिक अहसास को शब्दों व कैमरे के लेंस से बयां कर पाना संभव ही नहीं है। जल संपन्न स्थानों पर निवास करने वालों के लिए इसकी भव्यता अधिक चौकाने वाली है। उनके लिए जलस्रोतों की कीमत ही क्या है। उन्हें तालाब और कुएं आज व्यर्थ लगते हैं। इसी लिए उन्हें पाटकर धड़ल्ले निर्माण किया जा रहा है। लेकिन समझने की बात यह है कि अति, इति का ही दूसरा रूप है।
इसी बीच बावड़ी के उत्तरी भाग में स्तंभों पर बनी दीर्घा की छत से हमारे साथी राजकमल आवाज देते हैं। मैं जैसे ही उनकी ओर देखता हूं वे कैमरे को ज़ूम कर मेरी पिक क्लिक कर लेते हैं। बावड़ी के दक्षिण और पश्चिम में बने बरामदों में आभानेरी में खुदाई से प्राप्त व हर्षद माता मंदिर से आई कला कृतियों को प्रदर्शित किया गया है। इन्हें देखकर यहां के शासकों के शिल्प कला के प्रति प्रेम और कुशल शिल्पियों के कला के प्रति सर्मण को महसूस कर रहा हूं। सब कुछ सुव्यवस्थित देखकर अच्छा लग रहा है।
दक्षिण में पहुंचने पर उत्तरी भाग में बनी तीन मंजिला दीर्घा का भव्य स्वरूप दिखाई दे रहा है। बताया गया कि इसके दो मंडपों में महिषासुरमर्दिनी और गणेशजी की प्रतिमाएं स्थापित हैं। इसमें राजा का एक नृत्य कक्ष व सुरंग भी है। इसी दौरान बावड़ी में नीचे की ओर गौर से देखने पर प्रतीत होता है कि एक घड़ा पानी लाने के लिए उस समय कितना संषर्घ करना होता होगा। इसके लिए 1200 सीढिय़ां उतरो और फिर भरा घड़ा लेकर इतनी ही सीढिय़ां चढ़कर ऊपर आओ। यहां एक मान्यता और है कि इंसान जिस सीढ़ी ने नीचे जाता है, उससे ऊपर नहीं आ पाता। क्योंकि यह भूलभुलैया भी है। हमारा भी काफी मन है इसमें नीचे उतरने का लेकिन यहां बावड़ी के चारोओर लोहे की ग्रिल लगी है। ग्रिल को लांगना कोई कठिन काम तो नहीं लेकिन अंदर प्रवेश पर पाबंदी है।
अब हम सभी साथी अपने कैमरों में बावड़ी की सुंदरता को कैद करने में व्यस्त हो गए। यहां विदेशी पर्यटक भी अच्छी संख्या में पहुंचे हैं। इसकी एक वजह इस बावड़ी का जयपुर-आगरा हाईवे से काफी नजदीक होना है। यहां स्थानीय पर्यटक विदेशी मेहमनों के साथ फोटो खिंचवाने को बेताव हैं तो विदेशी मेहमान चटकीले कपड़े पहने मुंह पर उन्मुक्त मुस्कान लिए भारतीय चेहरों को कैमरे में कैद कर साथ ले जाने में हर्षित। हर कोई फोटोग्राफी में मशगूल है।
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इस बीच एक साजिश रची गई...
इसी बीच मेरे और साथी राजकमल के मन में खुराफत दस्तक दे गई है। बावड़ी के बाहर से अपनी हर एंगल से फोटो क्लिक कराने के बाद भी संतोष नहीं हुआ है। दरअसल हमारे साथ बावड़ी की डेफ्त नहीं आ पा रही है। इसलिए हम बावड़ी के अंदर प्रवेश की साजिश रचते हैं। इसके लिए मैंने पहले बावड़ी का एक चक्कर लगाकर रेकी करने का फैसला लिया है। मैं प्रवेश द्वार की ओर बढ़ रहा हूं। यहां बैठे कर्मचारियों को देखा, वे बहुम एक्टिव प्रतीन नहीं हुए। आगे बढऩे पर एक मंदिर दिखाई दिया। अरे अभी यहीं से तो गुजरा था, लेकिन इसपर नजर ही नहीं पड़ी। दरअसल मैं तो बावड़ी की झलक के लिए दौड़ा गया था। इस मंदिर में अच्छी संख्या में स्थानीय लोग आ रहे हैं। अंदर रखी मूर्ति रूपी छोटी शिलाओं पर लगे बंदन के लेप से ये हनुमान जी की जान पड़ रही हैं। हालांकि इसकी पड़ताल करने की इच्छा नहीं है। दिमाग में तो साजिश घर कर गई है न।
आगे नजर पड़ी तो सामने कोने पर झाड़-फूंक चल रही है। हमारी संस्कृति में इसका भी स्थान है। यह सही है या गलत कहना मुश्किल है। हां, लेकिन अति तो किसी भी चीज की सही नहीं है। बावड़ी की पूरी परिक्रमा करने के बाद वापस साथी राजकमल के पास पहुंच गया। तय किया है कि सामने से आ रहे लोगों के झुंड जैसे ही इस ओर से गुजर जाएंगे हम में से एक अंदर प्रवेश कर जाएगा। हम दक्षिण की ओर से सुरक्षा को भेदने की तैयारी में हैं। यहां से प्रवेश के दो फायदे हैं। एक तो बावड़ी का पूर्ण स्वरूप कैमरे से यहीं से कैद किया जा सकता है। दूसरा, यहां से प्रवेश करने पर पुरातत्व विभाग के कर्मचारियों की नजर पड़ने की गुंजाइश कम है। लेकिन एक समस्या अब भी है। ठीक दाई ओर के कोने में बैठा झाड़-फूंक करने वाला ओझा। अगर उसने देख लिया तो शोर मचा देगा।
अब पर्यटकों का झुंड गुजर गया और बावड़ी में भीड़ कम हो गई है। हम अंदर घुसने की तैयारी में हैं। यहां आशंका है कि एक व्यक्ति की ही फोटो क्लिक हो पाएगी। क्योंकि सामने बैठा ओझा देख ही लेगा। इसके बाद हम दोनों में पहले आप-पहले आप। अपन लखनवी तहजीब की मिसाल को कायम रखते हुए साथी राजकमल को पहले प्रवेश करने के लिए मना लेते हैं। आँखों ही आंखों में इशारा होता है और साथी राजकमल झट से ग्रिल को लांघकर अंदर घुस जाते हैं। उधर ओझा ने देख ही लिया और शोर मचाना शुरू। इस पर पुरातत्व विभाग के कर्मचारी भी सामने की दीर्घा की छत पर आ जाते हैं और चिल्लाते हैं। लेकिन हम निर्भीक होकर कैमरे में फ्रेम सेट कर इस यादकार पल को कैद कर लेते हैं। उन लोगों के सुर में सुर मिलाते हुए चेहरे पर मुस्कान के साथ मैं भी साथी राजकमल को बाहर आने के लिए कहने लगता हूं। इस बचकानी हरकत के लिए खुद पर हंसी आ रही है। लेकिन यह खुद को चुटकी काटकर देखने जैसा है, कि हां अभी हम जिंदा हैं।
अब तैयारी वापसी की है। इस बीच साथी राजकमल मेरी भी फोटो बावड़ी के अंदर भेज कर क्लिक करने की भरसक कोशिश करते हैं। पुरातत्व विभाग के कर्मचारियों से अनुरोध करते हैं। लेकिन वे मानते ही नहीं। इस बीच वे पूछते हैं कि आप लोग क्या काम करते हैं। और हमारे बताते ही कि एक अखबार में हैं। अब तो संभावनाएं पूर्णरूप से समाप्त हो गई हैं। और वो अब हमने विनती करते हैं कि सर हमारे भी बाल-बच्चे हैं। हम थोड़ा शर्मिंदा सा होकर वहां से निकल लेते हैं। समय दोपहर एक बजे के पार है। अब लौटने की जल्दी हो रही है। पांच बजे ऑफिस भी पहुंचना है।हम बाहर आकर परिसर में लगे पेड़ की छाव में बचे फल खाकर और बाहर की एक दुकान से चाय पीकर चल दिए हैं। इस बार चयन बांदीकुई के अंदर वाले रास्ते की जगह मेगा हाईवे का ही किया है। रास्ते में ही किसी ढाबे पर खाना भी खाने की तैयारी है। अलवर की सीमा में प्रवेश के साथ ही बाइक चलाते हुए हम दोनों ओर बने ढाबों पर नजर दौड़ाने लगे हैं। ज्यादातर पर सन्नाटा पसरा है। और फिर एक ढाबे पर हम रुक जाते हैं। यहां पांच-सात लोगों का ग्रुप खाना खा रहा है। इस दौरान मन में पूर्व के हाईवे पर खाना खाने के दौरान बिल के नाम पर लूट की यादें भी जहन में आ रही हैं।
यहां टेबल पर बैठने के बाद हम सादा खाना ऑर्डर करते हैं। बावर्ची एक दम सीधा-सादा बंदा है। बड़ी ही विनम्रता से बात कर रहा है। खाने का कुछ देर इंतजार के बाद मैं उठकर पता करने जाता रहा हूं कि कितनी देर है। इस दौरान पूछा कि छांछ या दही का कोई प्रबंध है। पहले तो बावर्ची ने मना कर दिया। फिर बोला रुको फ्रिज में देखकर बताता हूं। देख कर कह रहा है वो वाली छांछ तो नहीं है। मैंने कहा कौन सी है तो एक पुरानी पेप्सी की बोतल में भरी छांछ दिखा दी। मैंने कहा घर की है क्या। बोला हां घर वाली ही बची है पैकेट वाली नहीं है। इसके बाद उसने मुझे बोतल थमा दी और कहा कि चेक कर लीजिए। मैंने बोतल को ऊपस से एक घूंट लिया...अहा! मजा आ गया है। यह तो अपने गांव वाली मलाई वाली छांछ है। इसके बाद बोतल में भुना जीरा, काला नमक मिलाकर छांछ हमें दे दी गई। कुछ ही देर में खाना भी टेबल पर आ गया। खाने में ताजा पन है। देसी छांछ ने स्वाद को और बढ़ा दिया।
खाना खाने के बाद छोटा भाई वहीं रुक गया। और हम तीनों ऑफिस सहकर्मचारी वॉलेट निकालते हुए काउंटर पर पहुंच गए। यहां फिर मनुहार का दौर शुरू हो गया। नहीं मैं दूंगा-नहीं आप नहीं मैं दूंगा। और हमें हमारे वरिष्ठ साथी गजानंद जी की बात माननी ही पड़ी। उन्होंने पेमेंट किया। पता है बिल कितना आया... मात्र 290 रुपए। जबकि हमने छांछ और पैक्ड पानी भी लिया था। यहां यह विश्वास भी हुआ कि हाईवे के होटलों और ढाबों की क्षवि खराब जरूर है लेकिन हर कोई लुटेरा नहीं।
इसके बाद हम फिर बाइकों पर सवार होकर चल दिए हैं। रफ़्तार 60-70 की बरकरार है। इसी बीच हम चार बजे अलवर पहुंच गए। इस प्रकार एक दिवसीय इस सुखद यात्रा का अंत हो गया।
सबसे मजे कि बात पता क्या है...। आज शनिवार है यानी कि मेरा वीकली ऑफ और मुझे ऑफिस नहीं जाना है। घर पहुंचते ही जैसे-तैसे कपड़े उतार कर फेंके और बेड पकड़ लिया। और गहरी नींच के आगोश में चला गया...।
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