रविवार, 16 अक्तूबर 2016

उजाले के लिए वह खुद बाती की तरह जले थे स्वामी रामकृष्ण परमहंस

19वीं सदी में हिंदू धर्म संक्रमण के दौर से गुजर रहा था। अंधविश्वास और कुरीतियां इसे बुरी तरह जकड़े हुए थीं। देश में तो हम इसका यशोगान कर रहे थे। लेकिन विदेशी धरती पर इसे हिकारत भरी नजरों से देखा जा रहा था। इसी दौर में एक गुरु धर्म के शुद्धीकरण के लिए प्रयासरत था. कुरीतियों की बेडि़यां कांटने और अंधविश्वास रूपी अंधकार को मिटाने के जतन कर रहा था। इसी जद्दोजहद के दौरान उसके पास एक युवा आया. उसकी ज्ञान की पिपासा देखकर इस गुरु की आंखें चमक उठी। गुरु ने खुद मूर्ति उपासक होते हुए भी उसे आत्मज्ञान के पथ पर अग्रसर होने के लिए प्रेरित किया. फिर क्या शिष्य ज्ञान की गहराइयों में गोते लगाने लगा. दर्शन, धर्म, जीवन के रहस्यों की गाठें खोलकर ऊचाईयाँ पाने लगा. वह समय भी आया जब गुरु दुनियाँ में नहीं रहे लेकिन उनका सपना फिर भी जीवित था.
उनका यह शिष्य 1893 में सात समंदर पार कर अमेरिका की धरती पर कदम रखता है। और उसका एक भाषण पश्चिम में हिंदू धर्म के प्रति व्याप्त तमाम भ्रांतियों को उखाड़ फेंकता है। जिनके दिलों में अब तक भारत और उसके सनातन धर्म के प्रति घृणा थी, आज उनमें करुणा के अंकुर फूट पड़ते हैं।
यह युवा कोई और नहीं, स्वामी विवेकानंद थे। उनके द्वारा जो ज्ञान का प्रकाश फैलाया गया उसमें अगर कोई बाती के रूप में जल रहा था तो वे थे स्वामी रामकृष्ण परमहंस।
कहते हैं स्वामी रामकृष्ण परमहंस न होते तो नरेंद्र कभी स्वामी विवेकानंद नहीं होते। यह संबंध कुछ वैसा ही था, जैसा दीपक, बाती और तेल में होता है। स्वामी विवेकानंद खुद को मिट्टी का छोटा दिया समझकर स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास पहुंचे। उन्होंने समर्पण रूपी तेल, बाती रूपी गुरु में उड़ेल दिया। फिर गुरु रामकृष्ण को तो बाती होकर जलना ही था।



(*Parts of artwork have been borrowed from the internet, with due thanks to the owner of the photograph/art)

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