शनिवार, 15 अक्तूबर 2016

Munawwar Rana-last

पाकिस्तान का वो बुजुर्ग भारत आया तो उस खंबे से लिपटकर खूब रोया
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(आँखों देखा मुनव्वर-अंतिम)
अब समय मुनव्वर साहब को कुरेदने का था। मैंने पूछा कि आपको दो साल पहले उत्तर प्रदेश की उर्दू अकादमी का अध्यक्ष बनाया गया लेकिन कुछ समय बाद आपने इस्तीफा दे दिया। क्या वो ताज कांटों भरा था ?
मुनव्वर साहब थोड़ा ठहर कर बोले, आज गधों के रेट, घोड़ों से ज्यादा हो गए हैं। यही राजनीति है। सिस्टम की और बाते साझा करने के बाद वे बोले, दरअसल यूपी सरकार ने रिवाल्वर तो हमें दे दिया था। लेकिन कारतूस आजम खान अपने पास रखते थे। फिर क्या हमने भी रिवाल्वर फेंक दी और चले आए।
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बातों ही बातों में उनके गजल संकलन मुहाजिरनामा का जिक्र हुआ तो पाकिस्तान की बाते शुरू हो गईं। उन्होंने बताया 1990 में वे पहली बार पाकिस्तान गए। वहां उन्हें एक मुशायरे में शिरकत करनी थी। उन्हें यह देखकर हैरानी हुई कि जैसा भारत है, वैसा ही पाकिस्तान भी है। वही संस्कृति, वैसे ही लोग, वही अच्छी-बुरी आदतें, यहां तक की वहां के लोग भी वही गालियां देते हैं, जो हमारे यहां दी जाती हैं। लेकिन यहां से गए लोग आज भी वहां मुहाजिर (शराणार्थी) की तरह जी रहें हैं। उनकी रूह आज भी भारत में अटकी है। जैसे ही भारत के लोग पहुंचते हैं, वहां लोग घेर लेते हैं और रात-रात भर यहां की बातें सुनकर रोते हैं। सवाल भी कैसे- वो फला गांव में मोड़ वाला पीपल का पेड़ है या गिर गया, वो फला गुरुजी थे, उनके बच्चे अब क्या करते हैं, वो फला हलवाई अब भी वहीं दुकान लगाता है... ? वहां के बुजुर्ग अपने पोतों को भारत की कहानी किसी परियों वाले देश की तरह सुनाते हैं। दरअसल यहां से लोगों को वहां लालच देकर ले जाया गया था। 
इसके बाद गुजारिश पर मुहाजिरनामा के कुछ शेर... 
मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं,
तुम्हारे पास जितना है, हम उतना छोड़ आए हैं।
ये दो कमरे का घर और गुजरती जिंदगी अपनी,
वहां इतना बड़ा नौकर का कमरा छोड़ आए हैं।
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बुजुर्ग भारत आया तो उस खंबे से लिपटकर रोया
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भारत से पाकिस्तान चले गए एक बुजुर्ग कुछ साल पहले यूपी के बुलंदशर के अपने पुराने गांव आए। यहां उनकी पुस्तैनी हवेली थी, जिसे जाते समय उनके परिवार ने किसी जाट को बेच दिया था। जाट परिवार से इजाजत लेकर उन्होंने पूरी हवेली घूमी। इसके बाद बाहर लगे एक खंबे को देखा तो ठहर गए। इसके बाद वे उस खंबे से लिपटकर खूब राए। लोग हैरान। लोगों ने पूछा तो उन्होंने बताया कि यह खंबा उनके बचपन का साथी है। जब वे छोटे थे और घर में उन्हें कोई डांट देता तो वे इसी से लिपटकर रोते थे। वहीं खुशी में भी वे इससे लिपटकर गोल-गोल घूमते। इसके बाद उन्होंने जाट परिवार से गुजारिश की कि वे उनसे कुछ पैसे ले लें और जर्जर होती हवेली की मरम्मत करा दें। जाट परिवार के मान जाने पर उन्होंने कुछ लाख रुपए दे दिए। इसके बाद जब वे चलने लगे तो उन्होंने एक गुजारशि और की। इस जर्जर हवेली की एक लखौरी ईंट अपने साथ ले जाने की। जिसे परिवार ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। इस ईंट को वे अपने साथ पाकिस्तान ले गए। क्योंकि वहां वे बिलिनियर थे तो उनका घर भी आलीशान था। यहां उन्होंने दुनिया भर से लाए गए साजो-सामान के सजे ट्राईंग रूम में बीच दीवार पर इस ईंट को लगा दिया। जब उनके बच्चों ने उन्हें इसके लिए टोका तो उन्होंने दो टूक कह दिया कि अगर इस ईंट को निकाला गया तो वे भी घर से निकल जाएंगे। इसके बाद जब उनका अंत समय आया तो उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा बताई। कहा- इस ईंट को मेरे दफनाने पर मेरे साथ रख देना। मुझे लगेगा कि मैं हिन्दुस्तान में सो रहा हूं।
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और जब मुशायरे के बाद अशोक चक्रधर फूट-फूटकर रोए
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पाकिस्तान के एक बड़े मुशायरे में शिरकत करने के लिए मुनव्वर साहब, वासीम बरेलवी साहब के साथ अशोक चक्रधर गए थे। यहां शानदार आयोजन हुआ। इन्हें लोगों की बेपनाह मुहब्बत मिली। इसके बाद रात में जब होटल में अशोक चक्रधर मुनव्वर राना के साथ बैठे तो अशोक चक्रधर फूट-फूटकर रोने लगे। वे बोले मुनव्वर भाई बचपन से यही तसव्वुर था कि पड़ोस में दुश्मन पल रहा है। लेकिन यहां सारे अपने ही हैं। इतनी मोहब्बत तो अपने देश में लोगों से नहीं मिली।
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इसके बाद मौजूदा माहौल को देखते हुए पाक से रिश्तों और हालातों को लेकर सवाल किए। इस पर मुनव्वर साहब ने यह कहते हुए कुछ सुझाव दिए कि जंग तो हल नहीं है। आज का युवा तपाक से कह देता है कि हमला कर दो। दरअसल उन्होंने जंग सिर्फ टीवी पर फिल्मों में देखी है। मैंने जंग की विभीषिका को बहुत नजदीक से देखा है। यह मंजर बहुत बयावाह होता है।
फिर कहते हैं कि आतंकवाद मजबूरी और गरीबी का नाम है। वो पाकिस्तान आतंकवाद के कैंसर को क्या दूर करेगा, जो अपनी दम पर एक कैंसर का अस्पताल न बनवा सका। इसके लिए इमरान खान पूरी दुनियां में घूमें और चंदा इकट्ठा कर बनवाया। 
इसके बाद वे कहते हैं कि 
कोई शरहद न होती, कोई गलियारा न होता,
मां बीच में होती तो बंटवारा न होता। 
दोनों देशों के बंटवारों के दौरान अगर नेहरू और जिन्ना की मांए साथ बैंठ जाती तो वे इस बंटवारे को होने नहीं देतीं।
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और जाते जाते उन्होंने अर्ज किया...
बुलंदियों का बड़े से बड़ा निशान छुआ,
जब मां ने गोद में उठाया तब आसमान छुआ।
मेरी ख्वाहिश है कि फिर से मैं फरिश्ता हो जाऊं
मां से इस तरत लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊं।


(*Parts of artwork have been borrowed from the internet, with due thanks to the owner of the photograph/art)

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