हाल ही में उत्तर प्रदेश के फर्रूखाबाद जिले में स्थित संकिसा जाना हुआ। यह स्थान बौद्ध धर्म से जुड़ा है। मान्यता है कि यहां तथागत यानी गौतम बुद्ध ने अपनी मौसी गौतमी को स्वर्ग से आकर उपदेश दिया था। मैं संकिसा बतौर जिज्ञासु गया लेकिन स्थल की हालत और कुछ ढोंगियों की उपस्थिति ने भीतर का पत्रकार जगा दिया। एक अच्छी स्टोरी लिखने के लिए पर्याप्त साक्ष्य भी एकत्रित हो गए। एक पत्रकार तो संतुष्ट होकर लौटने को तैयार था लेकिन एक जिज्ञासु हताश था। हालाँकि अब भी उसे उम्मीद थी कि गौतम किसी ऐसे के पास ले जायेंगे जो उसकी पिपासा को शांत कर सकेगा और कहेगा बुद्धम् शरणम् गच्छामि..बुद्ध की शरण में चलो। मैं संतुष्टि और असंतुष्टि के भाव के बीच झूल रहा था.…फिर लौटने का फैसला किया लेकिन कुछ ही दूर आने के बाद मन में आया कि मुझे एक बार फिर वापस जाना है। बाइक वापस मोड़ दी लेकिन इस बार उस स्थान पर रुकना नहीं हुआ जहां तथागत स्वर्ग से लौटकर आये थे। मैं उससे एक किलोमीटर और आगे चला गया। मैं कुछ विदेशी मंदिर और साधना स्थल पहले ही देख चुका था, इस बार एक भारतीय मंदिर के आगे रुका जिसे मैनपुरी के किसी भिक्षु ने बनवाया था। अंदर गया तो एक बुजुर्ग भिक्षु मिले उन्होंने मुस्कान के साथ स्वागत किया। पहली बार कुछ सकारात्मक अनुभूति हुई। इसके बाद उनसे कुछ जानने-समझने बैठ गया। लेकिन कुछ देर बुद्ध के सिद्धांत बताने के बाद वो हिन्दू मान्यताओं और पाखंडों पर चोट करने लगे, इसी बीच दो अन्य भिक्षुओं का भी आगमन हुआ। वे दोनों देखने में विदेशी लगे (हालाँकि वो हमारे त्रिपुरा राज्य के थे)। कुछ देर बुजुर्ग भिक्षु को सुनने के बाद एक भिक्षु ने हस्तक्षेप किया। उसने हिन्दू धर्म की कुछ मान्यताओं का बेवजह खंडन करने पर बुजुर्ग भिक्षु को आड़े हाथ लिया। इसके बाद जो कुछ भी उसने कहा मैं डूबकर सुनता रहा। मुझे लगा गौतम ने आखिर मुझे एक सच्चे बौद्ध भिक्षु से मिला दिया है। इसके बाद उस युवा भिक्षु के साथ चर्चा शुरू हो गई । एक जिज्ञासु का चेहरा संतोष के भाव से खिलता जा रहा था। बौद्ध धर्म से लेकर दर्शन, देश-दुनिया के कई मुद्दों पर हमने खुलकर बात की। उसके पास से उठने का मन तो नहीं था लेकिन समय के अभाव ने विवश कर दिया।
बतौर जिज्ञासु मेरे पास लिखने को बहुत कुछ है। बतौर पत्रकार लिखने को बहुत कुछ है। लेकिन अब बहुत कुछ लिखने का मन नहीं कर रहा। अंत में ही सही गौतम इस जिज्ञासु को ज्ञान के एक ऐसे झरने के पास ले गए थे जो इसकी पिपासा को शांत कर सकता था लेकिन उसने शांत करने की जगह पिपासा और बढ़ा दी। उसने अंत में यह भी कहा कि बुद्धम् शरणम् गच्छामि...लेकिन अर्थ बदल चुका था उसने बुद्ध की शरण में नहीं बुद्धि की शरण में जाने को कहा। सच भी यही है, बुद्ध अपनी शरण में आने को कैसे कह सकते हैं, जब वो खुद किसी की शरण में नहीं गए।
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