शनिवार, 15 अक्तूबर 2016

Ramleela

आसमान से मेढक़ों का बरसना और रामलीला
बचपन के दिनों की याद करता हूं। तो याद आता है पहली दूसरी कक्षा का दौर। बारिश के वे दिन जब रास्ते मेढक़ों के नन्हें टोड्स से पट जाते थे। और हरदोई शहर के नुमाइश मैदान से सटे सुभाष नगर के रास्ते पर चलना दूभर हो जाता था। तमाम प्रयास के बाद भी एक आध मेढक़ जूते के नीचे आ ही जाता और पट से आवाज आती। ठीक वैसी आवाज जैसी बबल पैकिंग को फोडऩे पर आती है। इसके बाद मन दुखी हो जाता। कभी इतनी हिम्मत नहीं जुटा सका कि पैर के नीचे आकर कुचले मेढक़ को पैर उठाकर देख सकूं। उस समय मन में यही सवाल रहता था कि इतने मेढक़ बारिश में आते कहां से हैं। साथियों से भी इस पर लंबी चर्चा होती थी और हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते थे कि बीती रात मेढक़ों की बारिश हुई होगी। लॉजिक होता था कि जैसे आसमान से बर्फ वाले ओले गिरते हैं। ऐसे ही रात की बारिश में बेढक़ भी गिरे होंगे। लेकिन मेरे में मन में यह शंका रहती थी कि अगर मेढक़ रात में आसमान से बरसे तो सुबह छत पर एक भी मिला क्यों नहीं। मैने तीसरी मंजिल पर तो कभी एक भी मेढक़ नहीं देखा। हालांकि इसको लेकर दोस्तोंं से कभी बहस नहीं की। बहस करना आज भी पसंद नहीं है। बस किसी मुद्दे पर अपनी राय देने तक ही उचित लगता है। खासतौर से जब सामने वाले का उद्देश्य सिर्फ बौद्धिक मनोरंजन तक सीमित हो। 
इसी दौर में नुमाइश मैदान में बने एक अंडरग्राउंड कमरे में झाकने की ललक रहती थी। क्योंकि रामलीला के दौरान इसी कमरे में कलाकार मेकअप वगैरह करते थे। मन में रहता था कि आखिर अंदर से यह कमरा कैसा दिखता होगा। लेकिन कभी घुप्प अंधेरे से भरे इस कमरे में उतरने की हिम्मत नहीं हुई। इसी के ठीक ऊपर एक बड़ा सा चबूतरा था। जिस पर रामलीला का मंचन होता था। यहां बता दूं कि हरदोई में दहशहरा की जगह रामलीला के समापन पर रावण के पुतला के दहन की परंपरा है। यहां जनवरी के अंतिम सप्ताह में रामलीला का शुभारम्भ होता था। इसी के साथ नुमाइश मैदान पर नुमाइश (शहरी मेला) भी सजने लगती थी। उन दिनों रामलीला देखने में कोई रुचि नहीं थी। हमारे लिए तो आकर्षण नुमाइश ही होती थी। जिसमें सॉफ्टी (कोन वाली आइसक्रीम) की स्टाल लगती थी। जो सिर्फ नुमाइश में ही खाने को मिलती थी। शहर में उन दिनों सॉफ्टी की कोई दुकान नहीं थी। लेकिन कभी भटकते हुए रामलीला के मंच की आरे पहुंच जाता तो आश्चर्य में पड़ जाता। रामलीला देखने आए लोग राम आदि का किरदार निभाने वाले युवकों के पांव छूते थे। जैसे वो भगवान हों। मैं सोचता था कि यह कोई युवक है भगवान थोड़ी है। लोगों को इतना भी नहीं पता। उसके बाद उम्र के साथ उस रामलीला के मंच से दूरी बढ़ती गई। नुमाइश आज भी लगती है। लेकिन जब कभी जाना होता है तो बचपन के दोस्तों के साथ सिर्फ सॉफ्टी खाने जाता हूं। 2011 में जब आगरा में अमर उजाला ज्वाइन किया, उसके कुछ समय बाद साथियों के साथ राम बारात में जाना हुआ। आगरा में रामबारात का काफी भव्य आयोजन होता है। बारात में हाथी आदि भी शामिल किए जाते हैं। हालांकि मुझे वहां भी कुछ ऐसा नहीं दिखा जो इस विधा की ओर आकर्षित कर पाता। पहले साल के बाद तीन साल और आगरा में रहना हुआ लेकिन दोबारा राम बारात में शामिल होने नहीं गया। 
जैसा कि अब अलवर में राजस्थान पत्रिका अखबार में कार्यरत हूं, कुछ दिन पूर्व दो एसाइनमेंट मिले। विश्व पर्यटन दिवस व राजर्षि अभय समाज की रामलीला पर विशेष पेज देना। पहला विषय अपने मिजाज का था। जब काम अपने मिजाज का मिल जाए तो वो काम नहीं रह जाता और उसे करने में अंतर्मन से ऊर्जा अलग मिलती है। दूसरे के बारे में सोचकर शुरू से मन खिन्न था। यार... रामलीला पर एक पेज। कंन्टेंट क्या देंगे। अगर समाज ने सौ साल पूरे कर लिए तो इसमें क्या है। विश्व पर्यटन दिवस पर 27 सितम्बर को पेज देने के बाद दो दिन का समय था। इसमें भी शाम पांच से रात एक-डेढ़ बजे तक एडिटिंग का कार्य करना फिक्स है। बाकी बचे टाइम में ही सोना, खाना, रिपोर्ट लेकर आना और उसे लिखना था। एक बार को तो मैंने और साथी राजकमल ने तय किया कि मना कर देते हैं। रामलीला पर एक पेज देना संभव नहीं है। 
हालांकि अधूरे मन से ही हमने 27 सितम्बर को दोपहर दो बजे का राजर्षि अभय समाज से टाइम लिया। सवा दो बजे तक मैं साथी Rajkamal Vyas व वरिष्ठ साथी Gajanand Sharma समाज के कार्यालय पहुंच गए। यहां हमारी रिपोर्टिंग टीम की साथी ज्योतीजी ने हमारा परिचय कराया। अब हमारे साथ समाज के पांच पदाधिकारी बैठे हैं। एयरफोर्स वाले खत्रीजी को छोडक़र सभी के बालों पर चांदी चढ़ चुकी है। दरअसल खत्रीजी ने डाई की हुई है। शुरुआत औपचारिक बातों से हुई, समाज की स्थापना कब हुई, किसने की। जब उनसे पूछ कि आपने कौन-कौन सी भूमिका निभाई हैं, तो उनमें आपस में बच्चों सी होड़ लग गई। शर्माजी बोले एक और नोट करो ताडक़ा भी बना था एक बार, तभी खत्रीजी बोल पड़े विक्रम बेताल में बेताल भी तो बना था मैं उसे भी नोट कर लें। इसके बाद एक दूसरे को उनकी निभाई भूमिकाओं को याद दिलाने लगे। अस्सी की दहलीज पर खड़े इन बुजुर्गों के चेहरों पर अतीत में जाकर आनोखी चमक आ गई। इन्होंने अपने साथी कलाकारों के त्याग और समर्पण की ऐसी दासतां भी सुनाईं, जिन्हें सुन हमारी आंखों में भी नमी आ गई। इनके एक साथी जो न्यायिक सेवा में बड़े अधिकारी थे भर्तृहरि नाटक का मंचन कर रहे थे। इसी दौरान घर से सूचना आई कि उनके पिताजी नहीं रहे। उन्हें जानकारी दी गई लेकिन उन्होंने मंच छोडऩे से इंकार कर दिया। उन्होंने कहा कि पुत्र धर्म से बड़ा, इस समय मंचन का कर्म है। वहीं एक संगीत कलाकार की जीवनसंगिनी के नहीं रहने की सूचना आई तो वह भी मंच छोडक़र नहीं गए। अंत तक गायन और संगीत से श्रोताओं को अभिभूत करते रहे। यह है मंच के प्रति समर्पण। 
हम जितने से भी पदाधिकारियों से बात कर रहे हैं, सभी सरकारी सेवाओं में ऊंचे पदों से रिटायर्ड हैं और इस उम्र में भी मंच पर सक्रिय हैं। वहीं यहां उन लोगों से भी मिलना हुआ जो दिनभर दफ्तर में काम करने के बाद देर रात तक रामलीला का मंच करते हैं तो कुछ लोग छुट्टियों को घूमने की जगह रामलीला के लिए रिजर्व रखते हैं। क्या मिलता है इन्हें इस मंच से...दौलत-नहीं, शोहरत-नहीं। फिर क्यों आते हैं। यह भगवान राम के प्रति इनकी आस्था और मंच के प्रति समर्पण का भाव ही है। यहां सबकुछ कितना मर्यादित रूप से करते हैं यह लोग। जो युवक कुछ देर पहले तक सुभाष होता है, वही किरीट मुकुट पहतनते ही भगवान राम हो जाता है। इसके बाद कोई डायरेक्टर कोई पदाधिकारी वहां उससे बड़ा नहीं हैं। अब सब उसके पांव छुएंगे। अब कोई उसे भूल से भी हासपरिहास नहीं कर सकता। मंच की मर्यादा को लेकर इतनी सजगता की पूछे नहीं। 
ऐसा नहीं कि यह मर्यादाएं मंच तक सीमित हैं। ये कलाकार अपने जीवन और परिवार में भी इसके बीज बो रहे हैं। यह अहसास उस समय हुआ जब समाज के महामंत्री महेश शर्मा अपने एक पौत्र को स्कूल से लेकर दफ्तर पहुंचे। नन्हा सा बालक चेहरे पर प्यारी मुस्कान लिए एक तरफ से सभी के पैर छू गया। उसे यह जानने की जरूरत नहीं थी की कौन किस जाति या धर्म का है। उसके लिए तो बड़ों का आशीर्वाद ही ध्येय था। वह रामलीला के दौरान राम के बाल स्वरूप में भी भूमिका निभाता है।
सभी बुजुर्गों के खुशी से चमकते चेहरे किस कदर मुझमें ऊर्जा का संचार कर रहे थे। बयां करना मुश्किल है। मंच के प्रति उनके समर्पण ने अब हमारे अंदर उनके प्रति सम्मान को गई गुना बढ़ा दिया। मंच के प्रति उनमें असीम आदर है। आज मेरा भी मन पांव छूने का है। आगे मौका मिलेगा तो छुऊंगा भी। राम ही नहीं रावण के भी छुऊंगा। उनके कदमों पर झुकने का ध्येय उनके इस त्याग और समर्पण को नमन करना होगा, उनके संस्कृति को बचाने के प्रयास को नमन करना होगा।
सच में नाटकों में लगे रंगीन पर्दों के पीछे श्वेत-श्याम जिंदगी का किनता, त्याग, कितनी तपस्या, कितना समर्पण अनदेखा रह जाता है। 
कल शाम को ऑफिस में जब साथी राजकमल कन्टेंट तैयार करने बैठे तो मैं उन्हें बार-बार टोक रहा था। यार कितना लिखोगे। मैं अपना कन्टेंट पहले ही दे चुका था। कई बार टोका मगर वे लिखे जा रहे थे। अंत में जब उनसे शब्द संख्या चेक करने को कहा तो पाया कि वे 10 हजार शब्द टाइप कर चुके थे। अभी कई बिंदु लिखने को शेष थे। जबकि एक फुल पेज देने के लिए अगर फोटो हैं तो 2 से ढाई हजार शब्द पर्याप्त होते हैं। अब हम अपनी उस बात पर हंस रहे थे कि 'एक पेज का कन्टेंट कहां से लाएंगे'। वहीं माथा पीट रहे थे कि अब इसमें से क्या हटाएंगे। 
अंत में एक बात जरूर कहूंगा कि वाकई रामलीला हमारी बहुमूल्य निधि है। अगर आप चाहते हैं कि आपका बेटा राम की तरह आपके विचारों और आदेशों का सम्मन करे। अपके बेटों में राम के चारों भाइयों जैसा प्रेम और त्याग की भावना हो तो उन्हें रामलीला के मंच के करीब ले जाएं। उन्हें दिखाएं कि राम होने के अर्थ क्या हैं। यह सच है कि आज जिस आधुनिकता की ओर हम बढ़ रहे हैं, वहां हमारी संस्कृति की महत्ता गौण हो रही है। लेकिन एक बात हमें समझनी होगी कि संस्कार ही हमारी जड़ें हैं। सब कुछ अपनाएं लेकिन उनके पोषण का ख्याल रखना न भूलें। क्योंकि अगर जड़ें मरीं तो खूरबसूरत पत्ते, फल और फूल से ख्याति अर्जित कर रहा पेड़ सूखने से बच नहीं पाएगा।

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