जिन्होंने अम्मा का दूध पिया है, वे आम चूसकर खाते हैं...
(आंखों देखा मुनव्वर-3)
ड्यूड और बेब टाइप लडक़े-लड़कियों को कविता के करीब लाने का श्रेय काफी हद तक कुमार विश्वास को ही जाता है। लेकिन असल कवि सम्मेलन और मुशायरों की संजीदगी कुमार के अंदाज और अल्फाज से इतर है। वहां कुछ इतना गहरा और गाढ़ा है जो किताबी ज्ञान से परे है। वहां सिर्फ मनोरंजन नहीं शब्द साधक तजुर्बे की बारिश से अज्ञानता के बंजर को खत्म करने का काम करते हैं। जिससे मनो-मस्तिष्क में वैचारिक अंकुर फूटते हैं, चेतना जागती है। इसीलिए वहां का अपना अनुशासन भी है।
खैर राना साहब की ओर लौटते हैं। मैं ऑफिस पहुंचा तो तैयारियां पूरी हो चुकी थीं। मैंने क्वैश्चनयर का प्रिंट लिया ही था कि पता चला राना साहब पहुंच चुके हैं। मैं भागकर उनकी गाड़ी के पास पहुंचा (अगर उनकी जगह फिल्म जगत की कोई सेलेब्रिटी होती तो शायद ऐसा कभी न करता, हां अमिताभजी जैसे सीनियर कलाकरों की बात और है)। वे काले लिबास में हैं। घुटनों की तकलीफ के चलते बेंत का सहारा लेकर चल रहे हैं। सच कहूं तो 64 की उम्र में उनका शरीर 74 जितना कमजोर दिख रहा है। लेकिन उनकी बड़ी-बड़ी आंखों में बच्चों की आंखों सा निश्चलता का तेज झलक रहा है।
इस दौरान जैसे ही बॉस ने राना साहब को मेरा परिचय दिया, मैं वापस उस अवस्था में पहुंच गया, जिसमें मैं उनका बहुत बड़ा प्रशंसक और शिष्य हूं। इसी दौरान शायद नाम के आगे मिश्रा लगे होने से उन्होंने पूछा कहा से हैं आप ? मैंने कहा- जी हरदोई से। अब मैं भूल चुका था कि मुझे उनसे कुछ सवाल भी करने हैं। मैं उनके शागिर्द की तरह उनके साथ चल रहा था और सोच रहा था कि यह रास्ता खत्म न हो और मुझे उनकी यह नजदीकी हमेशा के लिए मिल जाए। इसके बाद ऑफिस की दो सीढिय़ों को चढक़र अंदर प्रवेश करना था। मुझे मालूम था कि उनके लिए यह थोड़ा कठिन है। इसी बीच उन्होंने सहारे के लिए मेरा हाथ मांग ही लिया और सीढिय़ा चढक़र अंदर पहुंच गए। यहां हमारे कुछ और सहकर्मी मौजूद हैं। इसके बाद शुरू हो गया सवालों का सिलसिला। कुछ रोचक व गंभीर अंश आप भी जी लें...।
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तब लगा कि मूल से ज्यादा सूद प्यारा होने का मुहावरा गलत है...
एक सवाल के जवाब में उन्होंने बताया कि जब वे सात साल के थे, तब उनके चाचा-बुआ के साथ उनके दादा-दादी भी पाकिस्तान चले गए। दादी उन्हें बहुत प्यार करती थीं। फिर भी वे चली गईं। इससे वे बहुत दुखी हुए। उस समय उन्हें लगा कि मूल से ज्यादा सूद प्यारा होने का मुहावरा गलत है।
(हालांकि आज भी हम महसूस कर सकते हैं कि हमारे प्रति दादा-दादी का प्रेम अनूठा है। वे पापा से ज्यादा हमें प्यार करते हैं। इसी को लेकर यह मुहावरा है कि लोगों को मूल धन से ज्यादा उससे मिलने वाला सूद यानी कि ब्याज प्यारा होता है)
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जिन्होंने अम्मा का पिया है वो आम चूस के खाते हैं...
दो साल पहले लखनऊ में आम की दावत थी। मुनव्वर साहब भी वहां गए थे। इस दौरान सवाल उठा कि भाई कुछ लोग आम चूसकर खाते हैं, कुछ लोग आम काटकर खाते हैं। ऐसा क्यों ? इस पर एक सज्जन ने जवाब दिया कि जो लोग पढ़े लिखे होते हैं, वे आम काटकर खाते हैं। वहीं जो अनपढ़ गंवार हैं, वे आम चूसकर खाते हैं। इस पर मुनव्वर साहब ने टोका और कहा कि ऐसा नहीं है। जिन लोगों ने अम्मा का दूध पिया है, वे आम चूसकर खाते हैं। वहीं जिन्होंने डब्बे वाला दूध पिया है, वे आम काटकर खाते हैं। (इस पर ऑफिस में ठहाके गूंज उठे)
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क्रमश:
पिस्तौल हमको दे दी, कारतूस आजम अपने पास रखते थे...
(*Parts of artwork have been borrowed from the internet, with due thanks to the owner of the photograph/art)
(आंखों देखा मुनव्वर-3)
ड्यूड और बेब टाइप लडक़े-लड़कियों को कविता के करीब लाने का श्रेय काफी हद तक कुमार विश्वास को ही जाता है। लेकिन असल कवि सम्मेलन और मुशायरों की संजीदगी कुमार के अंदाज और अल्फाज से इतर है। वहां कुछ इतना गहरा और गाढ़ा है जो किताबी ज्ञान से परे है। वहां सिर्फ मनोरंजन नहीं शब्द साधक तजुर्बे की बारिश से अज्ञानता के बंजर को खत्म करने का काम करते हैं। जिससे मनो-मस्तिष्क में वैचारिक अंकुर फूटते हैं, चेतना जागती है। इसीलिए वहां का अपना अनुशासन भी है।
खैर राना साहब की ओर लौटते हैं। मैं ऑफिस पहुंचा तो तैयारियां पूरी हो चुकी थीं। मैंने क्वैश्चनयर का प्रिंट लिया ही था कि पता चला राना साहब पहुंच चुके हैं। मैं भागकर उनकी गाड़ी के पास पहुंचा (अगर उनकी जगह फिल्म जगत की कोई सेलेब्रिटी होती तो शायद ऐसा कभी न करता, हां अमिताभजी जैसे सीनियर कलाकरों की बात और है)। वे काले लिबास में हैं। घुटनों की तकलीफ के चलते बेंत का सहारा लेकर चल रहे हैं। सच कहूं तो 64 की उम्र में उनका शरीर 74 जितना कमजोर दिख रहा है। लेकिन उनकी बड़ी-बड़ी आंखों में बच्चों की आंखों सा निश्चलता का तेज झलक रहा है।
इस दौरान जैसे ही बॉस ने राना साहब को मेरा परिचय दिया, मैं वापस उस अवस्था में पहुंच गया, जिसमें मैं उनका बहुत बड़ा प्रशंसक और शिष्य हूं। इसी दौरान शायद नाम के आगे मिश्रा लगे होने से उन्होंने पूछा कहा से हैं आप ? मैंने कहा- जी हरदोई से। अब मैं भूल चुका था कि मुझे उनसे कुछ सवाल भी करने हैं। मैं उनके शागिर्द की तरह उनके साथ चल रहा था और सोच रहा था कि यह रास्ता खत्म न हो और मुझे उनकी यह नजदीकी हमेशा के लिए मिल जाए। इसके बाद ऑफिस की दो सीढिय़ों को चढक़र अंदर प्रवेश करना था। मुझे मालूम था कि उनके लिए यह थोड़ा कठिन है। इसी बीच उन्होंने सहारे के लिए मेरा हाथ मांग ही लिया और सीढिय़ा चढक़र अंदर पहुंच गए। यहां हमारे कुछ और सहकर्मी मौजूद हैं। इसके बाद शुरू हो गया सवालों का सिलसिला। कुछ रोचक व गंभीर अंश आप भी जी लें...।
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तब लगा कि मूल से ज्यादा सूद प्यारा होने का मुहावरा गलत है...
एक सवाल के जवाब में उन्होंने बताया कि जब वे सात साल के थे, तब उनके चाचा-बुआ के साथ उनके दादा-दादी भी पाकिस्तान चले गए। दादी उन्हें बहुत प्यार करती थीं। फिर भी वे चली गईं। इससे वे बहुत दुखी हुए। उस समय उन्हें लगा कि मूल से ज्यादा सूद प्यारा होने का मुहावरा गलत है।
(हालांकि आज भी हम महसूस कर सकते हैं कि हमारे प्रति दादा-दादी का प्रेम अनूठा है। वे पापा से ज्यादा हमें प्यार करते हैं। इसी को लेकर यह मुहावरा है कि लोगों को मूल धन से ज्यादा उससे मिलने वाला सूद यानी कि ब्याज प्यारा होता है)
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जिन्होंने अम्मा का पिया है वो आम चूस के खाते हैं...
दो साल पहले लखनऊ में आम की दावत थी। मुनव्वर साहब भी वहां गए थे। इस दौरान सवाल उठा कि भाई कुछ लोग आम चूसकर खाते हैं, कुछ लोग आम काटकर खाते हैं। ऐसा क्यों ? इस पर एक सज्जन ने जवाब दिया कि जो लोग पढ़े लिखे होते हैं, वे आम काटकर खाते हैं। वहीं जो अनपढ़ गंवार हैं, वे आम चूसकर खाते हैं। इस पर मुनव्वर साहब ने टोका और कहा कि ऐसा नहीं है। जिन लोगों ने अम्मा का दूध पिया है, वे आम चूसकर खाते हैं। वहीं जिन्होंने डब्बे वाला दूध पिया है, वे आम काटकर खाते हैं। (इस पर ऑफिस में ठहाके गूंज उठे)
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क्रमश:
पिस्तौल हमको दे दी, कारतूस आजम अपने पास रखते थे...
(*Parts of artwork have been borrowed from the internet, with due thanks to the owner of the photograph/art)
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