मैं ठान चुका था कि कल ऑफिस नहीं आउंगा... लेकिन तभी बॉस बोले- कल मुनव्वर आ रहे हैं
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(आंखों देखा मुनव्वर-2)
समय के साथ मल्टीटास्किंग का दौर शुरू हुआ। इसने सबसे अधिक नुकसान पत्रकारिता जगत को पहुंचाया। संपादक से लेकर उपसंपादक तक सभी को क्लर्क और मैनेजर बनाकर रख दिया। सैलरी के नाम पर तो चंद रुपए की वृद्धि हुई लेकिन बड़े स्तर पर स्टाफ की कटौती की गई और काम का अत्याधिक बोझ कर्मचारियों पर डाल दिया गया। आज हिंदी अखबारों के अंदर स्थिति यह है कि एक उपसंपादक पांच लोगों (कॉपी एडीटर+प्रूफ रीडर+पेज डिजाइनिंग+रिपोर्टिंग+फोटोग्राफी) तक के कार्य को अकेला कर रहा है। वहीं संपादक जो प्रकाशित हर न्यूज कन्टेंट के लिए कानूनी तौर पर जिम्मेदार है, उसे समाचार पर नजर रखने के अलावा मैनेजमेंट की सभी जिम्मेदारियां सौंप दी गई हैं। ऐसे में अखबार में प्रकाशित न्यूज कन्टेंट की गुणवत्ता बनाए रखना कितना चुनौतीपूर्ण है, यह आसानी से समझा जा सकता है। आए दिन अखबारों में जो पाई, मात्राओं की त्रुटियां आपको दिखाई देती हैं, वह इसी का ही एक परिणाम हैं।
खैर छोडिय़े मुझे तो आपको मुनव्वर से रूबरू कराना है। ऑफिस में शुक्रवार का दिन था। अन्य दिनों की अपेक्षा कार्य की अधिकता थी। मेरी कोहनी में दर्द हो रहा था। लेकिन मैं किसी प्रकार काम को खींचे जा रहा था। मन में था कि अगले दिन यानी कि शनिवार को अपना साप्ताहिक अवकाश है। आराम कर लूंगा तो अपने आप दर्द में राहत मिल जाएगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं और शनिवार को भी मुझे ऑफिस आना पड़ा। हाथ में क्रेक बैंडेज बांधकर मैं काम में लगा हुआ था। अंदर से दुखी था और मन ही मन यह तय हो गया था कि कल किसी कीमत पर ऑफिस नहीं आउंगा। हेल्थ इज वेल्थ। शरीर के प्रति इमानदार होना बहुत जरूरी है, क्योंकि इसने साथ छोड़ा तो बिस्तर से उठना भी भारी हो जाएगा। वहीं दुखी यह सोचकर हो रहा था कि घर से दूर होने का यही सबसे पीड़ादायक पहलू होता है कि आपके आंखों में दर्द की झलक किसी को नहीं दिखती। मां पास हो तो न जाने कितनी बार पूछती है कि दर्द ज्यादा तो नहीं हो रहा। यह लगा दूं, वह लगा दूं, गर्म पानी से सेक दूं और न जाने क्या-क्या जतन। इन सबके के बीच कीबोर्ड पर अंगुलियां दौड़े जा रही थीं। इसी बीच मैंने रोषपूर्ण लहजे में अपने सहकर्मी को बोल दिया कि भाई मैं कल नहीं आउंगा। उसने कहा ठीक है।
यही कोई नौ के आसपास का समय हुआ होगा। बॉस आए और बोले कि तैयारी कर लो कल मुनव्वर राना आ रहे हैं। मैंने पूछा ऑफिस? वो बोले हां ऑफिस। अब दर्द भरा चेहरा खिलने लगा था। जिससे मैं कह चुका था कि कल नहीं आउंगा, वे मेरी ओर देखने लगे। मैंने उन्हें कहा अब तो आना पड़ेगा। वह चकित थे। अब मैं उन्हें क्या बताता मेरे लिए मुनव्वर से मुखातिब होने के क्या मायने हैं।
मुनव्वर और शायरी से नजदीकियों में आगरा के उन यारों की सोहबत का भी असर है जो आए दिन मुशायरे के वीडियो डाउनलोड कर दिखाते और सूर सदन में आयोजित राष्ट्रीय स्तर के मुशायरों में साथ जाते थे। वे भी यादगार दिन हैं। हम अमर उजाला में थे, रात कोई 12 बजे काम से फ्री होते थे। इसके बाद सीधे बाइक सूरसदन की ओर दौड़ा देते और अपने शबाब पर पहुंचे कवि सम्मेलनों और मुशायरों के आनंद में डूब जाते। हम अंत तक रुकते और ऑडीटोरियम को वाह, वाह से गुंजायमान रखते।
इधर, ऑफिस में काम के दौरान जहन में सवाल उठने लगे। मुनव्वर साहब से क्या-क्या पूछना है। उनके बारे में क्या जानना है। इसी ऊहा-पोह के बीच ऑफिस से काम खत्म कर घर आ गया। लैपटॉप पर इंटरनेट कनेक्ट कर उनके बारे में पढऩा शुरू किया। हालांकि उनके बारे में बहुत कुछ तो पहले से ही पता था। सवाल भी घिसे-पिटे हो गए थे। अभी तक जो सवाल मैंने सोचे थे, अधिकतर पूछे जा चुके थे। फिर भी एक क्वैश्चनयर तैयार कर लिया। जिसमें तत्कालिक मुद्दों के साथ ही न चाहकर भी उनको कुरेदने वाले कुछ सवाल शामिल थे। इसकी एक कॉपी बॉस को मेल कर दी। मुनव्वर साहब को रविवार को शाम साढ़े चार बजे ऑफिस आना है। मैंने दोपहर 12 बजे से ही घड़ी की ओर देखना शुरू कर दिया। अंदर से कच्चापन है लेकिन मेरी बढ़ी दाढ़ी सामने वाले को भ्रमित कर सकती है कि अपन पुराने टाइप वाले संजीदा पत्रकार हैं। हालांकि आत्मविश्वास में कोई कमी नहीं है क्योंकि तैयारी में कोई कसर नहीं छोड़ी है। और चार बजते ही बाइक उठाई और ऑफिस के लिए निकल पड़ा।
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यकीनन कुछ न कुछ तो खूबियां होंगी,
वरना यह दुनिया यूंही इस पागल की दीवानी नहीं होगी।
- मुनव्वर राना
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क्रमश:
मैं उनके साथ ऐसे चल रहा था, जैसे उनका शागिर्द हूं।
(*Parts of artwork have been borrowed from the internet, with due thanks to the owner of the photograph/art)
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(आंखों देखा मुनव्वर-2)
समय के साथ मल्टीटास्किंग का दौर शुरू हुआ। इसने सबसे अधिक नुकसान पत्रकारिता जगत को पहुंचाया। संपादक से लेकर उपसंपादक तक सभी को क्लर्क और मैनेजर बनाकर रख दिया। सैलरी के नाम पर तो चंद रुपए की वृद्धि हुई लेकिन बड़े स्तर पर स्टाफ की कटौती की गई और काम का अत्याधिक बोझ कर्मचारियों पर डाल दिया गया। आज हिंदी अखबारों के अंदर स्थिति यह है कि एक उपसंपादक पांच लोगों (कॉपी एडीटर+प्रूफ रीडर+पेज डिजाइनिंग+रिपोर्टिंग+फोटोग्राफी) तक के कार्य को अकेला कर रहा है। वहीं संपादक जो प्रकाशित हर न्यूज कन्टेंट के लिए कानूनी तौर पर जिम्मेदार है, उसे समाचार पर नजर रखने के अलावा मैनेजमेंट की सभी जिम्मेदारियां सौंप दी गई हैं। ऐसे में अखबार में प्रकाशित न्यूज कन्टेंट की गुणवत्ता बनाए रखना कितना चुनौतीपूर्ण है, यह आसानी से समझा जा सकता है। आए दिन अखबारों में जो पाई, मात्राओं की त्रुटियां आपको दिखाई देती हैं, वह इसी का ही एक परिणाम हैं।
खैर छोडिय़े मुझे तो आपको मुनव्वर से रूबरू कराना है। ऑफिस में शुक्रवार का दिन था। अन्य दिनों की अपेक्षा कार्य की अधिकता थी। मेरी कोहनी में दर्द हो रहा था। लेकिन मैं किसी प्रकार काम को खींचे जा रहा था। मन में था कि अगले दिन यानी कि शनिवार को अपना साप्ताहिक अवकाश है। आराम कर लूंगा तो अपने आप दर्द में राहत मिल जाएगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं और शनिवार को भी मुझे ऑफिस आना पड़ा। हाथ में क्रेक बैंडेज बांधकर मैं काम में लगा हुआ था। अंदर से दुखी था और मन ही मन यह तय हो गया था कि कल किसी कीमत पर ऑफिस नहीं आउंगा। हेल्थ इज वेल्थ। शरीर के प्रति इमानदार होना बहुत जरूरी है, क्योंकि इसने साथ छोड़ा तो बिस्तर से उठना भी भारी हो जाएगा। वहीं दुखी यह सोचकर हो रहा था कि घर से दूर होने का यही सबसे पीड़ादायक पहलू होता है कि आपके आंखों में दर्द की झलक किसी को नहीं दिखती। मां पास हो तो न जाने कितनी बार पूछती है कि दर्द ज्यादा तो नहीं हो रहा। यह लगा दूं, वह लगा दूं, गर्म पानी से सेक दूं और न जाने क्या-क्या जतन। इन सबके के बीच कीबोर्ड पर अंगुलियां दौड़े जा रही थीं। इसी बीच मैंने रोषपूर्ण लहजे में अपने सहकर्मी को बोल दिया कि भाई मैं कल नहीं आउंगा। उसने कहा ठीक है।
यही कोई नौ के आसपास का समय हुआ होगा। बॉस आए और बोले कि तैयारी कर लो कल मुनव्वर राना आ रहे हैं। मैंने पूछा ऑफिस? वो बोले हां ऑफिस। अब दर्द भरा चेहरा खिलने लगा था। जिससे मैं कह चुका था कि कल नहीं आउंगा, वे मेरी ओर देखने लगे। मैंने उन्हें कहा अब तो आना पड़ेगा। वह चकित थे। अब मैं उन्हें क्या बताता मेरे लिए मुनव्वर से मुखातिब होने के क्या मायने हैं।
मुनव्वर और शायरी से नजदीकियों में आगरा के उन यारों की सोहबत का भी असर है जो आए दिन मुशायरे के वीडियो डाउनलोड कर दिखाते और सूर सदन में आयोजित राष्ट्रीय स्तर के मुशायरों में साथ जाते थे। वे भी यादगार दिन हैं। हम अमर उजाला में थे, रात कोई 12 बजे काम से फ्री होते थे। इसके बाद सीधे बाइक सूरसदन की ओर दौड़ा देते और अपने शबाब पर पहुंचे कवि सम्मेलनों और मुशायरों के आनंद में डूब जाते। हम अंत तक रुकते और ऑडीटोरियम को वाह, वाह से गुंजायमान रखते।
इधर, ऑफिस में काम के दौरान जहन में सवाल उठने लगे। मुनव्वर साहब से क्या-क्या पूछना है। उनके बारे में क्या जानना है। इसी ऊहा-पोह के बीच ऑफिस से काम खत्म कर घर आ गया। लैपटॉप पर इंटरनेट कनेक्ट कर उनके बारे में पढऩा शुरू किया। हालांकि उनके बारे में बहुत कुछ तो पहले से ही पता था। सवाल भी घिसे-पिटे हो गए थे। अभी तक जो सवाल मैंने सोचे थे, अधिकतर पूछे जा चुके थे। फिर भी एक क्वैश्चनयर तैयार कर लिया। जिसमें तत्कालिक मुद्दों के साथ ही न चाहकर भी उनको कुरेदने वाले कुछ सवाल शामिल थे। इसकी एक कॉपी बॉस को मेल कर दी। मुनव्वर साहब को रविवार को शाम साढ़े चार बजे ऑफिस आना है। मैंने दोपहर 12 बजे से ही घड़ी की ओर देखना शुरू कर दिया। अंदर से कच्चापन है लेकिन मेरी बढ़ी दाढ़ी सामने वाले को भ्रमित कर सकती है कि अपन पुराने टाइप वाले संजीदा पत्रकार हैं। हालांकि आत्मविश्वास में कोई कमी नहीं है क्योंकि तैयारी में कोई कसर नहीं छोड़ी है। और चार बजते ही बाइक उठाई और ऑफिस के लिए निकल पड़ा।
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यकीनन कुछ न कुछ तो खूबियां होंगी,
वरना यह दुनिया यूंही इस पागल की दीवानी नहीं होगी।
- मुनव्वर राना
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क्रमश:
मैं उनके साथ ऐसे चल रहा था, जैसे उनका शागिर्द हूं।
(*Parts of artwork have been borrowed from the internet, with due thanks to the owner of the photograph/art)
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