शनिवार, 15 अक्टूबर 2016

क्या हर पुरुष ऐसा ही होता है...? कहीं मैं भी ऐसा ही तो नहीं...

हर घटना के बाद शर्म से नज़रें झुकती हैं। हर बार खुद की ही ओर शकभरी नज़रों से देखना होता है। क्या हर पुरुष ऐसा ही होता है...? कहीं मैं भी ऐसा ही तो नहीं...। 
यहां याद आते हैं अपने ही सहकर्मियों, सहपाठियों द्वारा महिला सहकर्मी और सहपाठी पर किए गए भद्दे कमेंट। और उसपर अपनी लाचार मौन स्वीकृति। फिर याद आते हैं वैश्याओं के साथ उनके अनुभव के किस्से, महिलाओं को लेकर उनकी धारणा। जिसमें वो राह चलती किसी महिला को अपने अनुभव से वैश्या होने का पता लगा रेट तक बेझिझक पूछ सकते हैं। 
लेकिन इस धारणा के लिए जिम्मेदार कौन है। सिर्फ वही ...? या समूचा सामाजिक ढांचा...।
यह सच है कि किसी के माता-पिता, भाई-बहन यह नहीं सिखाते की वे घर के बाहर हर युवती-महिला को गंदी नज़र से देखें, उनके साथ छेड़खानी करें या उनके जिश्म को नोंचे। लेकिन उतना ही सच यह भी है कि हम उन्हें यह गाइड भी नहीं करते कि उन्हें कैसे देखें और बिहेव करें। होता तो यहाँ तक भी है कि हम उन्हें गलत पाकर भी उन्हें बचाने के लिए पैरवी करने लग जाते हैं। जबकि यहां सबक का बीज बोया जाना जरुरी था। हवालात की हवा से अगर बचा भी लाए तो कम से कम कान पकड़कर माफ़ी तो मंगवाना ही था। वह समझे तो कि उससे गलती हुई, इसे किसी भी कीमत पर दोहराना नहीं है।
बात यहीं खत्म नहीं होती। हमें यह भी समझना होगा कि विकास के साथ हम किस संस्कृति का अनुसरण कर रहे हैं। वह संस्कृति गलत नहीं है लेकिन उसके साथ तालमेल बिठाने में हमारे समाज में हर चीज का ढका होना घातक साबित हो रहा है। आखिर कब तक हम अपने बच्चों से खुलकर बात न कर भरमाते रहेंगे। मान लें कि हम और आप उनको यह बताने में असमर्थ हैं कि उसका छोटा भाई या बहन दुनिया में कैसे आया। लेकिन यह तो बता ही सकते हैं कि चिड़िया अंडे से कैसे बाहर आती है।
आप परिभाषा नहीं बता सकते हैं न सही, कम से कम ए बी सी... सिखाने का प्रयास तो करिए। क्योंकि बाल मन के प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़ना गंभीर है। जिसके मन में प्रश्न उठा है वह उत्तर तो खोजेगा ही। लेकिन इसके लिए इंटरनेट के दौर में माध्यम क्या अपनाएगा यह चिंतनीय है। और इससे भी चिंतनीय है उसे मिलने वाला जवाब। यही छोटे-छोटे जवाब उसके व्यक्तित्व का निर्माण करेंगे। यही तय करेंगे कि समाज में उसकी भूमिका क्या होगी। हम बच्चों को किसी स्कूल या टीचर के सहारे नहीं छोड़ सकते। क्योंकि किताबों और मौजूदा शिक्षा पद्धति की अपनी सीमाएं हैं। बच्चे के पहले और आखिरी शिक्षक तो आप ही हैं।
अब देखिए बात समाज की शर्मिंदगी से शुरू हुई थी और आ गई बचपन पर। लेकिन सच भी तो यही है कि हमारे सामाजिक सिस्टम का मदरबोर्ड भी माँ और पिता ही हैं। यही तो हैं समाज के ताने-बाने के आधार।
और फिर समाज से जिस संक्रमण को हम ख़त्म करना चाहते हैं उसके लिए कोई कानून पर्याप्त भी तो नहीं है। न ही कोई कानूनी सजा अंकुश लगा सकती है। इसके लिए प्रयास बीज बोए जाने के साथ ही करने होंगे।
अंत में उम्मीद यही है कि मानव सभ्यता ने बहुत से उतार चढ़ाव देखे हैं। साझा प्रयास होगा तो हम इस संक्रमण से भी उभरेंगे। घुटन से मुक्त एक स्वस्थ समाज में हम फिर सांस लेंगे। हर जानी, अनजानी राह से गुजरती बच्ची को हक़ से दुलार सकेंगे। उसकी खिलखिलाहट पर अपनी जान निसार कर सकेंगे।


(*Parts of artwork have been borrowed from the internet, with due thanks to the owner of the photograph/art)

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