रविवार, 16 अक्तूबर 2016

मातृत्व के ये भी मायने...

महिलाओं को दिया गया मातृत्व का वरदान परिस्थितियों के साथ अभिषाप भी साबित होता है। हमारी समाजिक कुंठित कर देने वाली व्यवस्था में बच्चे को गर्भ में नौ महीने रखना, प्रसवपीड़ा को बर्दास्त करना और उसका पालन-पोषण करना महिला की मजबूरी है। इसमें पुरुष का योगदान अर्थिक सहयोग तक सीमित है और कहीं-कहीं तो वह भी नहीं। 
काश र्इश्वर कोर्इ ऐसी व्यवस्था बनाता जिसमें पुरुष के मंसूबे बुरे होने पर महिला गर्भवती ही न होती। या फिर बच्चा साढ़े चार-चार महीने दोनों के गर्भ में पलता। मैं र्इश्वर में विश्वास रखता हूं और उसकी बनार्इ हर व्यवस्था में भी लेकिन फिर भी कर्इ बार मुझे ऐसा महसूस होता है कि महिलाओंं के साथ न्याय नहीं हुआ। उसकी संरचना भावनात्मक रूप से तो पुष्प से भी ज्यादा कोमल कर दी गर्इ लेकिन सामना करने के लिए परिस्थितियां पत्थर से भी कठोर और कांटों से भी ज्यादा नुकीली दी गर्इं।
यह तो सिर्फ विवाहित महिलाओं की दुश्वारियां हैं। सोचिये, अविवाहित महिला के लिए मातृत्व के कितने भयावाह मायने हैं। हर एक कदम फूंक-फूंक कर रखने को विवश है। सामाजिक कीचड़ में उसका जरा सा पैर फिसला नहीं कि लांछनों के गर्म तेल के कढ़ाहे उस पर उड़ेल दिए जाते हैं। फिर पूरी जिंदगी उसे इन फफोलों के साथ ही जीनी नहीं काटनी होती है।

नोट- यहां महानगरों की उन नारियों को फिलहाल अपवाद ही माना जा सकता है, जो देर रात तक काल सेंटरों में नौकरी करने, ब्वायफ्रैंड के साथ घूमने-फिरने को आजाद हैं। अनवांटेड-72 जैसी पिल्स उनकी पहुंच में हैं। शादी के बाद बच्चा कब पैदा करना है, अगर दो पैदा करने हैं तो उनमें कितना गैप रखना है इस पर पति से बहस भी कर लेती हैं।
यहां तो बात उनकी हो रही है जिन्हें कालेज गांव से दो किलोमीटर दूर होने की वजह से ही पांचवीं के बाद पढ़ार्इ से त्यागपत्र देना पड़ जाता है। कोर्इ लड़का अगर उसके चक्कर काटने लगे तो घर में लड़की को ही पिटार्इ कर तालों में जकड़ दिया जाता है। शादी किससे होगी, इसके बाद बच्चे कितने पैदा करने हैं इसपर भी उनका कोई जोर नहीं होता।



(*Parts of artwork have been borrowed from the internet, with due thanks to the owner of the photograph/art)

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