रविवार, 16 अक्तूबर 2016

किसी स्त्री का मर्जी से किसी के साथ सोना हैरान करता है गैंगरेप नहीं

गैंगरेप के बाद युवती की हत्या, मासूम के साथ उसके चाचा द्वारा बलात्कार कर उसकी हत्या। उक्त दोनों घटनाओं से जनपद या यूं कहें समाज या यूं कहें मनवता शर्मशार है। ऐसा अखबार और न्यूज चैनल बता रहे हैं। मगर शर्म महसूस हो रही है या नहीं यह कहना थोड़ा मुश्किल है। खैर न भी हो तो क्या फर्क पड़ता है। सिर्फ शर्म कौन सी क्रांति ले आएगी। 
वहीं एक फोटो अखबार में देखी, पूर्वी यूपी के किसी जिले में एक महिला को घर से बाहर बैलगाड़ी में उसके पति ने बांध कर रखा है और रोज पीटता है। मामला पति के प्रेम संबंधों के विरोध का बताया गया। इधर, इंडिया टुडे का पिछला अंक नेपाल की गुमशुदा बेटियों का दर्द बयां करने की कोशिश कर रहा है। जो लखनऊ से लेकर जीबी रोड के कोठा नंबर 64 तक में ठूंस दी गई हैं।
चारों घटनाओं को अलग-अलग नजरिये से देखा और लिखा गया। मगर कोई भी इन्हें पढ़ या देख कर कुछ पलों से ज्यादा के लिए हैरान नहीं हुआ है, यहां तक मैं भी नहीं। हो भी क्यों, ऐसा कौन सा दिन होता है जिस दिन ऐसी घटनाएं नहीं होतीं। मुझे तो लगता है कुछ समय बाद ये घटनाएं न्यूज भी नहीं बनेंगी। कारण, न्यूज की परिभाषा ही यही कहती है कि जो नया और लोगों के लिए मनोरंजक है वही न्यूज है।अब और नया होने को रह ही क्या गया है।
भाई, देखो बाप बेटी का सौदा तो सालों साल से करता आ रहा है। अब रेप भी करने लगा है। इसमें बुराई ही क्या है। जब बेटी कोठे पर बैठेगी तो साला सैंकड़ों लोग उसके शरीर को मसलेंगे अगर बाप घर में उसे मसल रहा है तो प्रताणना कम ही समझो। अब जब बाप ऐसा कर सकता है तो चाचा, पड़ोसी और गांव का कोई व्यक्ति ऐसा कर दे तो कोई बहुत बड़ा दोष थोड़ी ही है। भाई, स्त्री तो भोग के लिए ही बनी है। जमकर भोगो। और मौका मिले तो आगे बढ़कर सांत्वना भी देने से न चूको..." अरे ये तो बहुत बुरा हुआ बेचारी के साथ ".... लेकिन मौका पाते ही तुम भी वही करो जिसके लिए सांत्वना देने गए थे। अब कोई और सांत्वना देने का मौका लपक ही लेगा।
हां, एक परिस्थिति है जहां सारी परिभाषाएं, सारी मान्यताएं उलट जाती हैं। पूरा समाज सच में शर्मशार महसूस करता है। हर किसी के दिल में सांत्वना की जगह गुस्से के गुबार उठने लगते हैं। जब भोग के लिए बनी यह स्त्री अपनी मर्जी से किसी को अपना जिश्म सौंप दे या शादी के बंधन में बंधने के लिए मजबूर होकर भाग जए। यह तो पाप है महापाप। छी… सभी को घिन आने लगती है उससे, है ना। अरे भाग न भी गई हो महज मुस्कुरा कर किसी से बात भी कर ले तो समझिए सारी मर्यादाएं तार-तार हो गईं। मानों एक मछली ने सारा तलाब गंदा कर दिया हो। सभी बदबू से कराह उठते हैं। कमाल है भाई। धन्य है समाज। धन्य हैं मर्यादाएं। धन्य है समाजी। जिंदाबाद जिंदाबाद।
नोट- उक्त समस्या के कई अन्य महत्वपूर्ण पहलू भी हैं।



(*Parts of artwork have been borrowed from the internet, with due thanks to the owner of the photograph/art)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें