शनिवार, 15 अक्तूबर 2016

Rana Sanga in Baswa


... और राणा सांगा के बारे में सुन दिमाग चकरा गया
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(भाग-2)
बाइक से ऑफिस सहकर्मियों के साथ झाझीरामपुर पहुंच हम झरना न मिलने पर भी मायूस नहीं हैं। क्योंकि जो मिला वह झरने से ज्यादा सुखद लगा। हम चारों लोग अब बसवा के लिए रवाना हो रहे हैं। समय सुबह के 10 के पार है लेकिन मेघों का छाता तना है सो धूप से राहत है। लेकिन मन में यह आशंका भी बलवती है कि गुरु बारिश शुरू हो गई तो सफर थम सकता है। क्योंकि साथ में मोबाइल के अलाव अपना ईएमआई पर लिया कैमरा भी है। उसे किसी कीमत पर भीगने का जोखिम ईएमआई पूरी होने तक तो नहीं ही उठाया जा सकता। वहीं बार-बार मन में सभी को अपनी आभा से प्रभावित कर देने वाली आभानेरी का ख्याल भी आ रहा है। लेकिन ये क्या कुछ दूर और चलते ही धूप निकल आई। लेकिन कोई खास दिक्कत नहीं मन तो महादेव से मिलन के बाद हिम सा शीतल है। 
हमें बताया गया है कि अगर बांदीकुई की ओर जाना है तो बसवा में रेलवे स्टेशन से पहले पड़ने वाले चौराहे से बाई ओर मुड़ना है। आगे रेलवे क्रॉसिंग पार कर हम फिर मेगा हाईवे पर पहुंच जाएंगे। कुछ ही देर में हम बसवा नगर में पहुंच गए। सड़क के दोनों ओर सरकारी, प्राइवेट स्कूल के साथ ही बैंक शाखाएं भी दिखाई दे रही हैं। सड़क की हालत भी ठीक है। पौराणिकता और आधुनिकता का संगम देखकर अच्छा लग रहा है। बाजार को पारकर हम उस चौराहे पर पहुंच गए जहां से मेगा हाईवे के लिए मुड़ना है। यहां साथियों ने रुककर कुछ फल लेने का फैसला किया। लेकिन मेरी नजर फलों पर नहीं चौराहे पर लगी प्रतिमा पर टिकी है। गौर से देखने के बाद पास जाकर देख रहा हूं। काले पत्थर की मूर्ति पर पर गुलाब के फूलों की माला चढ़ी है। मूछे और हाथ में तलवार देखकर लग रहा है कि कोई क्षत्रिय है। मैं शिलालेख ढूढ़ रहा हूं। पूरी परिक्रमा करने पर भी कुछ नहीं मिला है। सिवाय चबूतरे पर पुते स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एंड जयपुर का रास्ता दिखाते सूचक के। लौटकर साथियों के पास आया जो अब तक दर्जन भर केले और कुछ अमरूद खरीद चुके हैं। फल वाले चचा से प्रतिमा के बारे में पूछा तो बोले, प्रतिमा राणा सांगा की। मैं अवाक...। यहां राणा सांगा कहां से आ गए। हालांकि अपन ठहरे मूढ़ राणा सांगा के बारे में कुछ पता हो तो अंदाजा भी लगाएं कि आखिर बसवा में उनकी प्रतिमा क्यों लगवाई गई होगी। हालांकि खोज शुरू कर दी। साथियों से चर्चा करने पर पता चला कि मेवाड़ के शासक राणा सांगा यानी कि महाराजा संग्राम सिंह महाराणा प्रताप के दादा थे। उन्हें साहस और उनकी युद्ध कला के लिए जाना गया। उसके शरीर पर तलवार के एक नहीं पूरे 80 घाव थे। वे एक पैर, एक आंख और एक हाथ से अपाहिज थे। इसके बाद भी उन्होंने कई युद्ध लड़े और विजयी भी रहे। मेरा दिमाग चकरा रहा है, कोई इतना वीर कैसे हो सकता है। आधे शरीर के साथ रणभूमि में जाने के लिए कहां से आता होगा इतना साहस। बात आगे बढ़ती है। हमारे वारिष्ठ साथी गजानंद शर्मा सर बता रहे हैं कि राणा सांगा ने आखिरी युद्ध यहीं आगरा के फतेहपुर सीकरी के करीब खानवा में 1527 में बाबर के साथ लड़ा था। इसमें वे पराजित हुए थे। मोबाइल फोन में गूगल बाबा की मदद से पता चला कि इस पराजय की दो मूल वजह थीं। एक तो उन्हीं का साथी सरदार शिलहादी युद्ध के अहम समय पर अपने 30 हजार सिपाहियों के साथ बाबर के साथ मिल गया। दूसरी, तकनीक में पिछड़ापन। बाबर ने युद्ध में तोपों का इस्तेमाल किया जबकि राणा पारंपरिक भाले और तलवार के साथ मैदान में लोहा ले रहे थे। यहां बताया जाता है कि रणभूमि में राणा लड़ते हुए मूर्छित होकर जमीन पर गिर गए और उनकी सेना को लगा कि उनकी मौत हो गई। इसके बाद सेना के पैर उखड़ गए। राणा को उनके बहनोई आमेर नरेश पृथवी राज वहां से उठा ले गए (संभत: बसवा में ही उन्हें रखा गया)। लेकिन राणा ने स्वस्थ होने पर चित्तौड़ वापस जाने से मना कर दिया। उन्होंने कहा बाबर को बिना पराजित किए वह नहीं लौटेंगे। इसके एक साल के अंदर ही उन्होंने एक और युद्ध की तैयारी की। 1528 में मध्यप्रदेश के चंदेरी में वे मुगलों के खिलाफ युद्ध के लिए पहुंचे। लेकिन यहां आसपास कैंप में ही उनकी मृत्यु हो गई। इतिहाकारों में उनकी मौत को लेकर विरोधाभाश है। किसी का कहना है कि उनकी मौत बीमरी से हुई तो कोई उन्हें जहर दिए जाने की बात कहता है। इसी दौरान फल की ठेल वाले चचा बता रहे हैं कि यहां पास में ही उनका समाधि स्थल भी है। यहां मेरे दिमाग की सुई फिर अटक गई है। अगर एमपी में मौत हुई तो बसवा में अंतिम संस्कार क्यों किया गया। काफी खोजबीन के बाद भी स्थिति स्पष्ट नहीं कर पाया हूं। एक मत यह भी सामने आया कि उनकी मौत बसवा में ही हुई। वे चंदेरी में युद्ध के लिए गए ही नहीं। 
खैर हम इतिहास में न अटक कर वर्तमान में वापसी करते हैं। अब मन में बस राणा की समाधि को छूकर उन्हें महसूस कर लेने की आरजू है। उनकी समाधि स्थल का रास्ता पूछने पर पता चला कि जिस रास्ते से हमें मेगा हाईवे पर पहुंचना है, उसी रास्ते पर रेलेवे क्रॉसिंग के पास ही समाधि बनी है। इस प्रकार फलाहार कर हम आगे बढ़ते हैं। रेलेवे क्रॉसिंग के इर्द-गिर्द देखने पर कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। हम आगे बढ़ते हैं और मेगा हाईवे पर पहुंच जाते हैं। यहां पूछने पर पता चलता है कि हमें क्रॉसिंग से ही बाई ओर रेलवे लाइन के किनारे-किनारे जाना था। लेकिन एक रास्ता और है। मेगा हाईवे पर पुलिस थाने के सामने से बाई ओर सड़क से भी हम समाधि तक पहुंच सकते हैं। हमने आगे बढ़ने का फैसला लिया। थाने के सामने से मुड़कर हम एक बार रास्ते में बैठी काकी से समाधि के बारे में पूछते हैं तो वे कुछ दूरी पर गुजर रही रेलवे लाइन की ओर इशारा करती हैं। सड़क के पास ही अंडरपास का कार्य चल रहा है। हम वहीं बाइक खड़ी कर समाधि की तलाश में निकल पड़ते हैं। रेलवे लाइन के साथ कुछ दूर चलने पर एक चबूतरा दिखाई देता है। करीब पहुंचने और उस पर लिखे से पता चलता है कि यही है राणा सांगा का चबूतरा यानी की समाधि। यहीं एक वीर योद्धा प्रकृति के पंच तत्वों में विलीन हुआ होगा। जिस राणा सांगा के बारे में कल तक मैं निल बटे सन्नाटा था आज उसके इतने पास होकर सुखद अनुभूति हो रही है। आभानेरी की आभा देखने निकला था लेकिन अब राणा के सौर्य की आभा से आंखें चौंधिया रही हैं। जहन में बार-बार उनकी विशाल आकृति बन रही है। मन में एक ही ख्याल कि जिस्म पर 80 घाव, एक हाथ, एक पैर और एक आंख का अभाव। अंदर से कितना मजबूत रहें होंगे सांगा। यह माटी के प्रति उनका प्रेम और समर्पण ही होगा जो उनकी रगों में साहस का संचार करता होगा। उनकी वीरता को नमन करता हूं। लेकिन यहां उनके समाधि स्थल की बदहाली देखकर मन व्यथित भी है। एक ओर मुगलों ने आगरा में अपने घोड़ों तक की इतनी भव्य समाधि बना दीं, दूसरी ओर आजादी के बाद भी राणा सांगा की ऐसी अनदेखी...। व्यथित मन लेकर हम यहां से निकल रहे हैं। 
अब तैयारी आभानेरी की है। वही आभानेरी जहां एक हजार साल से भी पुरानी 3500 सीढ़ियों वाली बावड़ी (कुआं) है।
क्रमश...

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